अनुभूति के क्षण भाग - 2 | Anubhuti Ke Kshan Bhag - 2

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Anubhuti Ke Kshan Bhag - 2  by आचार्य श्री नानेश - Acharya Shri Nanesh

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about आचार्य श्री नानेश - Acharya Shri Nanesh

Add Infomation AboutAcharya Shri Nanesh

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
अनुभूति के क्षण/9 आगे भी प्रारंभिक आश्रय तो तर्क का ही लिया जायेगा। यह होगा व्यक्ति की विश्वसनीयता जांचने का तर्क।| कल्पना करें कि एक व्यक्ति के साथ आपका बीसों बार काम पड़ा और हर बार उसकी बात पूरी सच निकली। उसके बाद उसकी बात की विश्वसनीयता आप कैसी मानेंगे ? कहेंगे-तर्क की जरूरत नहीं है, हम उसे सही ही मानते हैं। यदि उसकी विश्वसनीयता की गहराई और अधिक हुई तो भले ही आप तार्किक हों पर इतना तक कह देंगे--आप क्‍यों टोकते हैं ? मैं तो उसकी बात आंख मींच कर मानतां हूँ। * इस बिन्दु पर मैं यह कहना चाहूंगा कि तर्क से जब हम सन्तुष्ट हो जाते हैं तब आस्थावान बन जाते हैं| फिर तर्क छोटा पड़ जाता है और आस्था बहुत बड़ी हो जाती है। उस वृहदाकार आस्था में कोई तर्क उठावे तो आप उसे बचकानापन ही मानेंगे । तो प्रारंभिक तर्क से हम यह जानने का यत्न करते हैं कि उस व्यक्ति का भव्य स्वरूप कैसा हो सकता है जिसने अपनी आत्मा का पूर्ण विकास सिद्ध कर लिया हो। यह अध्ययन और तर्क का विषय होगा। ये कसौटियाँ वीतराग देव के स्वरूप पर कसकर जब आप समन्तुष्ट हो जायेंगे तब आप उनकी आज्ञा की वास्त॑विकता एवं सार्थकता के प्रति भी सन्तुष्ट हो जायेंगे। जिस विधि विधान पर उन्होंने अपनी सफल आत्मसाधना की और स्वानुभव से जो आनन्द उन्होंने प्राप्त किया, उसे ही उन्होंने सर्व जगत्‌ कल्याण हित प्रकट कर दिया। यह प्रकटीकरण बिना किसी पक्षपात या मेदभाव के समान रूप से उन्होंने किया। उनकी आज्ञाएं ऐसी ही हैं जैसी कि सूरज की धूप होती है या चंदा की चांदनी। इन सब पर किसी का एकाधिकार नहीं होता यानी कि वे सबकी होती हैं और सबको सम्यक ज्ञान, दर्शन व चारित्र की प्रेरणा देती है। अब प्रश्न है इन आज्ञाओं के प्रति आस्था का। मैं विचारता हूँ कि तर्क और आस्था का अन्तर स्पष्ट हो गया है। तर्क निरूपयोगी नहीं होता और आस्था कभी अंधी नहीं होनी चाहिये। जहाँ तक मेरी बुद्धि और मेरा विवेक दौड़ सकता है, वहां तक मेरा विचार है कि मेरा तर्क भी दौड़ना चाहिए किन्तु अन्तर यही है कि तर्क के दौड़ने की सही सीमा मेरी अपनी चुद्धि और मेरे अपने विवेक से आगे बहुत कम रहती है। बस इतनी ही कि वह मोटे तौर पर विश्वसनीयता की समस्या को भली प्रकार से समझ ले और उसका सही समाधान निकाल ले। मैंने अनुमव किया है कि आस्था के आगे तर्क सदा ही झुकता आया है क्‍योंकि आस्था की कोई सीमा नहीं




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now