कावूर | Kavoor
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
180
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।
विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन् १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन् १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन् १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कुछकथा और शैद्याव । श्ष्
राजा चार्ल्स अठ्यर्टने कावूरके पितासे अनुरोध, नहीं आग्रह, किया
कि आप ट्ूरिनमे तिकारिओ अर्थात् पोडिस पिभागके प्रधान अधि-
कारीका पद स्वीकार कर छीजैए | उसने राजाकी बात मान छी |
तब वह छेरीयाठी अपनी जायदादका इन्तजाम और देख भार
करनेमें असमर्थ हो गया | इधर घरके और ठोगेंने भी उस पर
पिशेष ध्यान ने दिया | कुछ दिन इसी तरह अऑधपाघुन्धीमें बीते ।
इससे बडा नुकसान हुआ। तब कावूरने जायदाद अपने अधि-
कार्मे छानेकी ठानी, क्योंकि कानूतके अनुसार इस सम्पत्तिका
वारिस उसका जेठा भाई था। इसके लिए उसने उसकी तथा अपने
पिताकी अनुमति प्राप्त की । छेरीवाढी यह जायदाद बहुत बड़ी थी।
उसे अपने अधीन करते ही वह बहुत बडा जमींदार बन गया )
सैनिक विभागकी नौकरी छोडनेके दिन तक खेतीके निपयमें उसे
“काछा अक्षर भैप्तके बरातर ? था | परन्तु कामका भार उठाते ही
उसने ऋपि-शात्नके अध्ययनका सपाठा चलाया | थोड़े ही समयमें वह्
उस तिपयका इतना ज्ञाता होगया कि जियादहसे जियादह पैदायार करने
लगा । कृषि सुधारसे सम्बन्ध रखनेवाले नयेसे नये वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त
करनेकी उसने चेष्टा की | अपनी जमीनमें अपने प्राप्त ज्ञानका प्रयोग वह
बार बार किया करता | इन प्रयोगोंके द्वारा वह स्थानीय अपढ़ और भन्नान
खेतिहरोंको भी कृपि-शाल्षकी शिक्षा दिया करता | कावूरकी मह-
स्याकाक्षा क्या थी, यह पहले ही कहा जा चुका है। उसके सफछ
होने योग्य अनुकूछ परिस्थिति अभी तक प्राप्त न हुईं थी। मेजिनीके
आन्दोलनके कारण देशमें एक ओर पिद्रोह और परिष्ठृव तथा दूसरी
ओर अविकारियोंकी धरपकड़ नीतिका युद्ध हो रहा था। मेनिनी-
पक्षके छोगोंकी आकाक्षाओंके साथ कावूरुकी सहानुभूति तो थी, पर
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