रूपतापस | Roop Tapas

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Roop Tapas by देवलीना - Devleena

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रहूपतापत् : २७ लड़की बोली, 'रेखा !” *रेखा। वाह ! बड़ा अच्छा नाम है!” दीनवन्धु अब आँलें बन्द कर मुँह से मस्त्रोच्चार करने लगे। देवीदास समझ गया कि मास्टर साहव विश्वकर्मा को प्रणाम कर रहे है और विद के सूष्दिकर्त्ता से आशीर्वाद की आकाक्षा कर रहे है। उत्तके बाद बहू अपने गुद को नमन करते हैं। इसके वाद कुछ और ही बन जाते हैं। दीनवन्धु की आँखें कुछ वडी-बड़ी-सी हो गईं । इस दीनवन्धु को देखने पर वह कोई दूसरे लोक के आदमी मालूम देते थे ! बह अब नि संकोच बोले, “रेखा, अन्र तुम्हे वरत्रहीन होना पड़ेगा । अगर मन हो तो कोने वाले उत्त कमरे में चली जाओ । वहाँ कपडे वर्ग रह रखने के लिए अलंगनी है ।' दीन* बन्धु लड़की की पीड़ा को समक् रहे थे। उसका लजौता अक्षत यौवन आरवत हो रहा था। 'तुम्हें किसी वात का डर नहीं। यहा और कोई नहीं आएगा !' दीन बन्चु ने उसे आश्वासन दिया । लड़की कमरे के अन्दर चली गई। कपड़े उतारने मे आखिर कितना समय लगता है। पर लडकी कुछ ज्यादा ही देर लगा रही थी । देवीदास जिस तरह बार-वार घडी बी तरफ देख रहा था, उससे लग रहा था वह काफी खिन्न हो गया है। पहले दिन स्त्री-मॉडलो के साथ ऐसा ही होता हैं। दीनवन्धु अपने लम्बे अनुभव से यह बात जानते हैं। उसके बाद सव ठीक हो जाता है। इतने वर्धों की इस साधना मे उन्होने कोई कम निर्वस्त्र औरतों को नहीं देखा था। बहुत साल पहले एक और लड़की ठीक इसी तरह अपने जन्म-दिन की पोशाक में उनके सामने आने मे देर लगा रही थी। ठीक देवीदास की तरह ही दीनबन्धु भी अधीर हो उठे थे। शरीर के मामले मे आम लोग जो कुछ सोचते हैं, शिल्पी के दिमाग मे वे बातें नही होती । लज्जा छोड़कर, हिम्मत वटोर कर निर्वस्त्र रेखा अब कमरे से बाहर आई दीनवन्धु ने देखा, लज्जा से रेखा का झरीर रह-रहकर पेड की हरी पत्ती की तरह मिहर उठता था | उसने अपनी आशखे मूद रखी र्थ दीनवन्धु रेखा को कुछ भी नहीं वोले 1 वह अपनी मर्जी की




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