श्री \केशव मिश्रा की तर्कभाषा | Tarkabhasa Of Sri Kesava Misra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
352
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ २२ |
आदि अन्थों में न््यायशासत्र का रचयिता 'महर्षि गौतम! को ठहराया गया है। .
इसके विपरीत न्यायसाष्य, न््यायवार्तिक, न्यायवार्तिक तात्पर्य दीका ओर
न््यायमंजरी आदि न्याय शाख के अनेक अन्थों में न्याय शास्त्र की अज्ञपाद'! की
कृति बतलाया गया है। इस सम्बन्ध में एक तीसरा मत महाकवि भास के
प्रतिमा नाटक में मिलता है जो इन दोनों से भिन्न है ओर जो न्याय शाख्र का अणेता
श्री 'मेधातिथि को वतलाता है। इस अकार संस्कृत साहित्य में न्याय शास्त्र के
श्चयिता के रूप से हमारे सामने तीन नाम जाते हँ। इन तीनों से न््यायशास्र
वस्तुतः किसकी कृति है इसका निर्णय कर सकना कठिन कार्य है। आचीन पण्डितों
के अनुसार अक्षपाद् और गोतसम एक ही व्यक्ति है । महर्षि गोतम का दूसरा नाम
अक्षपाद क्यों पड़ा इस सम्बन्ध में दो आख्यायिकाएँ असिद्ध हं। पहली आखझया-
यिका का भाव यह है कि--
महर्षि गोतम किसी समय अमण के लिए जा रहे थे। उस समय ये किसी
दार्शनिक पश्न के विचार में इतने निमग्न हो गये कि मार्ग का ध्यान उन्हेन
हा और वह किसी कुएं में जा गिरे। कुएं से उनकी प्राणरक्षा तो यथा-कथश्ित्
ट्री गई, पर आगे कभी इस अकार की दुर्घटना न घंटे इस भाव से क्ृपालु भगवान्
ने उनके परों में दो आँखे वना दीं इसीलिए वह अक्षपाद [ पेरों में जाँख वाले
जाने छगे।
इस कथा की निःसारता और मिथ्या-परिकल्पना इतनी स्पष्ट हे कि उसके
लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। जिस मस्तिष्क से इस मिथ्या
कथानक की सृष्टि हुई उसने अक्षपाद शब्द को अन्वर्थ कर देने की बात तो
सोची, पर शेष उसकी योक्तिकता आदि पर तनिक भी विचार नहीं क्रिया
अन्यथा ऐसी तुच्छु परिकल्पना वह कभी न करता। मन अणु है, एक समय
में एक ही वस्तु का ज्ञान वह कर सकता है, “युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिमनसो लिज्ञम्
यह न्यायशाखत्र का ही सूत्र है । महर्षि गोतम का मन उस समय किसी अन्य
१. यो5क्षपादसूषि न्याय: प्रत्यभाद् वदतां वरम् ।
तस्य वात्स्यायन इदं, भाष्यजातमवर्तेयत् ॥
[ न्याय भाष्य, विजयनगरम् संस्कृत सीरीज )
२. यदक्षपादः प्रव॒रों मुनीनां शमाय शास्त्र जगतो जगाद।
कुताकिकाज्ञान निवृत्तिहेतीं: करिष्यते तस्य मया निवन्धः ॥ [ न््यायवातिक |
३. अथ भगवता अक्षपादेन निःश्रेयसहेतो शास्त्र प्रणीते । [ न््याय-वार्तिक दात्पयं टीका ]
ड. थक्षपादप्रणीतों हि विततो न््यायपादपः।
सान्द्रामतरसस्यन्दफलसन्दभ निभेरः: ॥ [ न््यायमशञ्नरी, प्रथम परि० |
५. भोः काइयपगोत्रोस्मि । साज्ञोपाह्नं वेदमधीये, मानवीय धर्मशास्त्र, माहेश्वरं योगशार्त्र,
वाहस्पत्यमथशास्त्र, मेघातियेन्यायशास्त, प्राचेतसं श्रा्वकल्पं च |
[ प्रतिमा नाटक अज्भू ५, ए० ७९ |
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