संस्कृति और साधना खण्ड - 1 | Bhartiy Sanskrti Aur Sadhna Khand 1

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Bhartiy Sanskrti Aur Sadhna Khand 1 by महामहोपाध्याय डॉ. श्री गोपीनाथ कविराज - Mahamahopadhyaya Dr. Shri Gopinath Kaviraj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कास्मीरीय शैव-दर्शन श्र अलेकारशाज्र में मुख्य मक्ति घान्तस्स के अन्तर्गग है और गाौणमक्ति भावमात्र हैं। भन्िश्ाम्र में आन्‍्तरस स्वये ही मक्तिविशेय है और मुख्यमक्ति तो स्सस्वसूपा है। आंडिस्य और नास्द ने अपने मक्तिसज्ों में, मसुसूदन सरस्वती ने मन्त-स्सायन में और श्रीरूपगोस्वामी ने भक्तिस्पामृत-सिन्धु में मक्ति के ससल का उपपादन किया है । यहाँ उन सब की आल्येचना आवश्यक नहीं दे। यहाँ केबट इतना ही कहना यथेष्ट होगा कि प्रत्यमिज्य-दर्शन के आचायों ने भन्कि को रस के रुप में स्वीकार कर अध्यात्म-राज्य के एक गग्भीर तन्ब को प्रकट कर दिया दै। उत्सटाचार्य अपनी शिव- स्तोजाव्ली के प्रथम स्तोत्र में कहते जयन्ति मक्तिपीयूपरसासववरोन्मदाः । अद्वितीया अपि सदा त्वदुद्वितीया अपि प्रमो 1 परा मक्ति की यही विशेषता है कि इस अवस्था में दूसरे के न होते हुए मी दूसरा रइता »है। नदिया के भ्रीगारंग महाप्रभु ने इसीन्ए अजिन्‍्त-मेदामेद-त्व का प्रचार किया | जा समझते ह. कि दो होने से ही मिथ्या दो जायगा, उन्होंने पूर्ण सत्य के वेबल एकदेश-मात्रको देखा है। झजान के नष्ट हो जाने पर भी, ऐक्य- स्फुण होने पर भी, उस ऐकय की गोद में दो रद सकते दें, यद्यपि वे दोनों ही एक का ही शुद्ध भाव में आत्मप्रसार्ण है-- नाथ वेयक्षये केन न दृश्यों5स्पेककः स्थितः वेधवेदरुसं क्षो मेउप्यसि मक्तेिः सुदर्शनः ॥ अन्तमुंखावस्था में कुछ भी जानने योग्य न रह जाने पर भी एक के रूप में जिमका स्फुरण होता दे, जेय और ज्ञाता के इस संज्ोभ में--इस वैचिब्य में भी भकगण समावेश वी अधिकता के काएए उसी को देखते ४ | जो विस्वातीत ई, वही तो विश्वामक भी ई और दोनों समकाल् में ही हं। इसीलिए ज्ञान और भक्ति जहाँ समस्स ईं, यहाँ विभ्बातीत और विश्वात्मक सममाव में ही प्रकाशमान दें | यहां इतादेत का खामज्ञस्प डोता दे । यही इंश्वयदवाद की विशिष्ठता दे 1 ७ शंकर और आगम-सम्प्रदाय--अंकर द्वाय प्रचारित अ्ह्मवाद के साथ ईखवय- दइसवाद का जे भेद दिखलाया गया है, उससे कोई यद न समझे कि दंकराचार्य ईथरा- दयवाद को नहीं मानते थे | वस्तुततः, शंकराचार्य प्रवमिज्ञा-सिद्धान्त को मानने थे तथा अनेक स्थरों पर उन्होंने स्पष्ट आच्दों में इस द्रात को घोषित किया है । इसको आलेचना पीछे की जायगी। खाधारण रंन्‍्यासी-सम्पदाय में जे मत प्रचलित है तथा डिसका अवद्यन कर अद्दैत-उख्धान के अन्य आदि रे गये हैं, आजकल एकमात्र उसी यो शंकर का मत समझा जाता दै | किन्तु, उसके साथ अन्यान्व मतों का भी सम्बन्ध था, इसे एकवारगी अस्वीकार नहीं किया जा सकता | हमारा खबाल है दि आगम और निमम दोनों मार्गों के ही सम्पदायप्रवर्चकू बनकर शंकसचार्य ने जगदगुर-पद की साथकता सम्पादित की थी। हान और उपासना--संस्थास और गाईस्थ्य--दोनों दिशाओं में हे उनकी पचास्द्चक्ति अच्याइत थी। भद्यापुदुणे % उपडेद देने को यदी




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