व्याकरण तन्त्र का काव्यशास्त्र पर प्रभाव | Vyakaran Tantra Ka Kavya Darshan Per Prabhav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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होता है । लीकभाषा लौफिक व्याकरण का आधार है अत भांषा की ही तरह व्याकरण के विकास और विस्तार सतत एवं गलिशील सिद्ध हीते हैं । पत-जालि ने शब्द एवं जर्थ के सम्बन्ध का निधीरक लॉक को मानते दुए स्पष्ट किया है. हक अर्थ को लीदृध का विषय बनाकर प्रयुज्यमान शब्दों का निर्माण किसी के द्वारा नहीं किया जाता । जिस प्रकार घट से प्रयोजन रखने वाला ब्याबित कुम्भकार से कहला है - धट का निमांण करी मैं इससे अपना कार्य करूंगा इस प्रकार कभी भी. शब्द का प्रयोग कहता हुआ व्यक्ति तैयाकरणों के परिवार मैं जाकर नहीं कहता कि शब्द का निमाण करी मैं इनका. प्रयोग कहँगा..। प्रयोबता अर्थ के अनुसार शब्द का प्रयोगकता चलता है 11 पत+जील का यह सव्विचन शब्द की नित्यता का प्रतिपादक होते दुए ्याकरण के स्वरूप की और भी बाड०्गत करता है कि व्याकरण शब्द का निर्माण न कर शब्द के मुल स्वरूप की ब्याछ्या करता है । का त्यायन एवं पतत-जलि व्याकरण के स्वरूप एवं उपयोगिता का विस्तृत पिनिरूपण करते हैं । इनकी धारणा है - सक्ष तत्त्व का यथार्थ जान स्याकरण है .। खक्षरसमा कनाय अथीतू अकारादि अक्षरसमुहं वाकुसमा म्नाय अधीलू वाकूृतरत्व का सड़-कलन है । यही ज्ञान एवं विज्ञान के .चिवेचन का विषय है इसी में ज्दूम का निवास है पुर्पित एवं फीलित यही तर्त्व चम्द्र एवं लारामण्डल के सद्श सर्वत्र अलड्नकृत हैं यह शैय है यह ज्मराशि है । शब्दतत्त्वरूप इस ज़्ुमतत्त्व का ही सृष्टि मैं सर्वत्र प्रलिभास होता है | ।- यल्‍लो कैर्थमर्थमुपा दाथ शब्दान प्रयुभ्जत नेषां लिवृत्तौ यत्न॑ कुर्वी मत । थे पुनः. कार्या भावा ननिवृत्तौतावत्तेषां यत्त फियत । लखधा -बटेन कार्य. कार ध्यन कु म्भकार कुल गत्वाहनकुर घट कार्यमनिन करिष्यानिमि | न तावच्छब्दान प्रयुयुक्षमाणो वेयाकरणकु्त गत्वांह कुरु शब्दान्‌ प्रयो#षय. इत्ति -लावत्यवार्थमुपादाय शब्दा न प्रयुल्णत + झ० 25 परणरपा ०




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