कामायनी का प्रतिपाद्य | Kamayani Ka Pratipadya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६1५ ) स्वायत्व की इस इच्छा के परिण्ामस्वख्प ही मनु संतार की समस्त सुर विभूति पर अपना अधिकार चाहते हैं-- विश्व में जो सरल सुन्दर हो विभूति महान, सभी मेरी हैं, सभी करती रहें प्रतिदान | यही तो, मैं ज्यलित वाडव-चक्मि निवय अ्रशांत, सिन्घु लहरों सा करें मुके' सब शांत! मनु को यह स्वायल-लालसा मन की घोर व्यमितवादी और स्वार्थी प्रवृत्ति की अभिव्यवित है। यहां उसको स्वविषयक छेतना झ्ात्यन्तिक रूप में प्रकट हुई है | इस स्वविषयक्र चेतना की प्रवलता के परिशामस्वरूप मनु शेष सृष्दि से श्लगाव की बात सोचते हैं--- क्रंदुन का निज अलग एक आकाश बना ।? यह झलगाव मत की सहज प्रकृति है। मत से 'मेरा' प्लोर (परे का! इस हत की उत्पत्ति होती है | यह भ्रहंकार है जो मद की एक वृत्ति मात्र है 1 “दोग- दर्शन के श्रनुसार”' अ्रहुंकार सहज प्रवृत्तियों तथा आ्रवियों का, जिवमें सुक्ष-दुःादि अनुभूतियों का प्राधान्य होता है-महाव्‌ भंडार है । यह सभी अ्रतुभवों का प्रागार है। पही वैेबक्तिक चेतना की भ्रात्मता की प्रथम ग्रभिव्यक्ति है। ज्ञान- के कारण पझ्वधान की एकाग्रता तथा बुद्धिपूवंक भनृमभूति-सम्पन्न होते हैं. । यह ग्रात्मावुभव तथा कल्पना ( 1604४10॥ ) का अधिष्ठान है। सभी ग्रांतरिक प्रवृभवों का यह चेतन ज्ञाता है । मह्ी व्यक्तिकृत प्रात्मा भी है ।' $ सनु अपने सम्बन्ध में जो बातें कहते हैं वे उन्हे अहंकार के इस विवेचन के बहुत निकट ले पाती हैं | एक स्थान पर मनु भाव-चक्त में * पिसने की बात कहते हैं जो आविगों के भएडार सम्बन्धी विचार से बहुत मिलती हैं--- हाँ भाष-चक्र में पिस पिस कर चलता ही आया हूँ बड़कर, नर बही, १० ६५। बही, पूृ० २०७१1 “आरतीय मनोविज्ञान? में डा० अ्० ग० जावड़ेकर का लेख विदात्तीयथ मनौ- विज्ञान के कुछ पहलू? पृ० ८१ | ४ 'पभारतोय मनोविज्ञान में डा० पी० एस० ख़न्नरी का लेख 'थोग दश्शन का * मनोविज्ञान! पृ० ६१ | कामायनी, (० २६२ । श्ण्ज्पो रद




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