कामायनी का प्रतिपाद्य | Kamayani Ka Pratipadya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
183
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६1५ )
स्वायत्व की इस इच्छा के परिण्ामस्वख्प ही मनु संतार की समस्त सुर
विभूति पर अपना अधिकार चाहते हैं--
विश्व में जो सरल सुन्दर हो विभूति महान,
सभी मेरी हैं, सभी करती रहें प्रतिदान |
यही तो, मैं ज्यलित वाडव-चक्मि निवय अ्रशांत,
सिन्घु लहरों सा करें मुके' सब शांत!
मनु को यह स्वायल-लालसा मन की घोर व्यमितवादी और स्वार्थी प्रवृत्ति की
अभिव्यवित है। यहां उसको स्वविषयक छेतना झ्ात्यन्तिक रूप में प्रकट हुई है | इस
स्वविषयक्र चेतना की प्रवलता के परिशामस्वरूप मनु शेष सृष्दि से श्लगाव की
बात सोचते हैं---
क्रंदुन का निज अलग एक आकाश बना ।?
यह झलगाव मत की सहज प्रकृति है। मत से 'मेरा' प्लोर (परे का! इस
हत की उत्पत्ति होती है | यह भ्रहंकार है जो मद की एक वृत्ति मात्र है 1 “दोग-
दर्शन के श्रनुसार”' अ्रहुंकार सहज प्रवृत्तियों तथा आ्रवियों का, जिवमें सुक्ष-दुःादि
अनुभूतियों का प्राधान्य होता है-महाव् भंडार है । यह सभी अ्रतुभवों का प्रागार है।
पही वैेबक्तिक चेतना की भ्रात्मता की प्रथम ग्रभिव्यक्ति है। ज्ञान- के कारण पझ्वधान
की एकाग्रता तथा बुद्धिपूवंक भनृमभूति-सम्पन्न होते हैं. । यह ग्रात्मावुभव तथा कल्पना
( 1604४10॥ ) का अधिष्ठान है। सभी ग्रांतरिक प्रवृभवों का यह चेतन ज्ञाता है ।
मह्ी व्यक्तिकृत प्रात्मा भी है ।' $ सनु अपने सम्बन्ध में जो बातें कहते हैं वे उन्हे
अहंकार के इस विवेचन के बहुत निकट ले पाती हैं | एक स्थान पर मनु भाव-चक्त में
* पिसने की बात कहते हैं जो आविगों के भएडार सम्बन्धी विचार से बहुत मिलती हैं---
हाँ भाष-चक्र में पिस पिस कर
चलता ही आया हूँ बड़कर,
नर
बही, १० ६५।
बही, पूृ० २०७१1
“आरतीय मनोविज्ञान? में डा० अ्० ग० जावड़ेकर का लेख विदात्तीयथ मनौ-
विज्ञान के कुछ पहलू? पृ० ८१ |
४ 'पभारतोय मनोविज्ञान में डा० पी० एस० ख़न्नरी का लेख 'थोग दश्शन का
* मनोविज्ञान! पृ० ६१ |
कामायनी, (० २६२ ।
श्ण्ज्पो
रद
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