धरती का ध्रुवतारा | Dharati Ka Dhruvatara
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
240
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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बी ऐ
तुमने कहा, किया नहीं मैंने एक भी काम बताओ ।
तन, मन, धन, न्यौछवर फिर क्यों असत् आरेप लगाओगी ॥
बस बस रहने दो स्वामी! नहीं आगे बात बढाओ ।
कभी न पूछा क्या इच्छा तब छ पूछा तो बतलाओ जी ॥
जैसा सोच रही हो मन में नहीं है कुछ भी वैसा ।
समझदार होकर के रानी! रोष उच्चित नहीं ऐसा जी ॥
फिर भी चलो भूल यह मेरी भूल इसे पर जाओ ।
जो भी इच्छा हो मन में वह अभी मुझे बतलाओ जी ॥
जहाँ से भी उपलब्ध होगी मैं लाकर दूँगा तुझको ।
पूर्ण कामना करके ही विश्राम दूंगा मैं मुझको जी ॥
एक बार फिर सोचलो स्वामी! फिर मैं बात बताऊं ।
ऐसा न हो कि कहकर मैं मन ही मन पछताऊं जी ॥
वचन देता रानी! तुमको, यदि काम नहीं कर पाऊं ।
आकर के मैं इस महल में चेहरा नहीं दिखाऊं जी ॥
वचनबद्ध कर कहे वह, देखा सपने में मृगबाल ।
पुच्छ स्वर्णमय मुड़ी हुई थी सुन्दर उसकी चाल जी ॥
आंखें खुली त्वरित मेरी यह दृश्य देखकर नव्य ।
बस इच्छा यह राजमहल में लाये शिशु वह भव्य जी ॥
जब तक वह मृग देख न लूं मैं नयनों से साक्षात् ।
खाना-पीना, उठना, बोलना, अच्छा लगे न नाथ जी ॥
अरे! अरे! इतनी सी बात पर क्यों निज को तड़फाया ।
वैसे ही कह देती मुझको व्यर्थ हृदय कलपाया जी ॥
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