धरती का ध्रुवतारा | Dharati Ka Dhruvatara

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Dharati Ka Dhruvatara by कमलाकुमारी कमलप्रभा - Kamalakumari Kamalaprabha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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की टी बी ऐ तुमने कहा, किया नहीं मैंने एक भी काम बताओ । तन, मन, धन, न्यौछवर फिर क्यों असत्‌ आरेप लगाओगी ॥ बस बस रहने दो स्वामी! नहीं आगे बात बढाओ । कभी न पूछा क्या इच्छा तब छ पूछा तो बतलाओ जी ॥ जैसा सोच रही हो मन में नहीं है कुछ भी वैसा । समझदार होकर के रानी! रोष उच्चित नहीं ऐसा जी ॥ फिर भी चलो भूल यह मेरी भूल इसे पर जाओ । जो भी इच्छा हो मन में वह अभी मुझे बतलाओ जी ॥ जहाँ से भी उपलब्ध होगी मैं लाकर दूँगा तुझको । पूर्ण कामना करके ही विश्राम दूंगा मैं मुझको जी ॥ एक बार फिर सोचलो स्वामी! फिर मैं बात बताऊं । ऐसा न हो कि कहकर मैं मन ही मन पछताऊं जी ॥ वचन देता रानी! तुमको, यदि काम नहीं कर पाऊं । आकर के मैं इस महल में चेहरा नहीं दिखाऊं जी ॥ वचनबद्ध कर कहे वह, देखा सपने में मृगबाल । पुच्छ स्वर्णमय मुड़ी हुई थी सुन्दर उसकी चाल जी ॥ आंखें खुली त्वरित मेरी यह दृश्य देखकर नव्य । बस इच्छा यह राजमहल में लाये शिशु वह भव्य जी ॥ जब तक वह मृग देख न लूं मैं नयनों से साक्षात्‌ । खाना-पीना, उठना, बोलना, अच्छा लगे न नाथ जी ॥ अरे! अरे! इतनी सी बात पर क्‍यों निज को तड़फाया । वैसे ही कह देती मुझको व्यर्थ हृदय कलपाया जी ॥




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