अमिता | Amita

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Amita by यशपाल - Yashpal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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माता का उपदेश | २५४ गांव के बच्चे बिना वस्त्र के, कुछ कौपीन बांधे और कछ कंधों पर गला डाले पीफ्ल के समीप ही धरती में छिद्र ग्रथवा नालियां बनाकर खेल रहे थे । चौरे से कुछ दूर दही-भात खाकर फेंके हुए केले के पत्तों के टुकड़े पड़े थे । तोड़ देने के लिए फेंके हुए मिट्टी के प्याले-प्यालियाँ बिखरे हुए थे। किसी-किसी छप्पर से अन्न कूटने के शब्द की गूंज भी सुनाई दे रही थी । पीपल के नीचे चढाई पर सोये हुए सैनिकों में से एक की नींद खुली । वह उठकर घुटनों को बाहों में समेठ कर बैठ गया । जम्हाई लेते हुए उसने दूसरे सैनिकों को सम्बोधन किया --“अरे तुम लोग कब तक सोते रहोगे ! देखो, सूर्य पदिच्म की ओर ढलने लगा ।” सैनिक की पुकार से जाग उठे सैनिकों में से एक ने शरीर को अंगड़ाई में तानते हुए उत्तर दिया - “हमारे सो लेने में तुम्हें क्या आपत्ति हैँ ? हम उठ कर सूर्य को ढलने से रोक लेंगे ?” दूसरे ने उसकी बात पूरी की, “और क्या, हम यहां नायक की श्राज्ञा से सैनिक कार्य के लिए ही तो आये हैं ।” एक और सैनिक करवठ से कोहनी का सहारा लेकर उठा और बोला--- “तथागत की भक्त दयालु महारानी ने बस्ती के लोगों को उनकी धरती पर बसे रहने का आइवासन दे दिया है तो हमें यहां करना ही क्या है ? शिविर में ही तो लौटना है । चंड श्रशोक अभी बदुत दूर है। घाम में शिविर में न लौट कर विश्राम के लिए लेट गये तो हानि कया हुई ? “दूसरे सैनिक भी उठ कर बोलने लगे, “भ्रब तो लौटना ही ठीक है ।' ' चलो भाई, अब चलो ! ” बात करने वाले सैनिकों में से एक ने दूर बैठे अपने काम में व्यस्त लोगों की सुनाने के लिए समीप खेलते बच्चों की और देखकर पुकारा - “अरे तुम्हें पैदा करने वाले कहां गये ? या तुम यों ही झ्राकाय से टपक पड़े हो ! दोपहर से पहले जब फक्रोपड़ियां उजड़ जाने का त्रास था, सब हाथ बाँघे सामने खड़े थे । गुड़, दही, भात खिलाये बिना नहीं माने । अब किसी को एक लोटा जल देने की भी चिता नहीं | यह नहीं सोचते कि आ्रादमी अघा क़र दिन में सोता हैं तो उठ कर उसे प्यास भी लगती है। सो कर उठते पर कुल्ला करने, मुंह धोने की आवश्यकता भी होती है ।” सब से पहले उठने वाले सैनिक ने उसे टोंक दिया --“तुम तो ऐसे बिगड़ रहे हो जैसे गांव में बरात लेकर शआ्राये हो और तुम्हारा सत्कार नहीं हो




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