श्री सरस्वती प्रसाद चतुरवेदानां | Shri Saraswati Prasad Chaturvedanam

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Book Image : श्री सरस्वती प्रसाद चतुरवेदानां  - Shri Saraswati Prasad Chaturvedanam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्ररोचना वेदचयन? का प्रयोजन मात्र पज्यपुस्तक से कुछ अधिक है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि बेद का प्रयोजन मात्र मूल खोत से कुछ अधिक है | बेद को प्रारम्मिक शिक्षा इतिहास कीं दृष्टि से उतना महत्त्व नहीं रखती; जिदना भारतीय वाद्यग्रमात्र को समझने के छिए प्रमाण के रूप मे | तीन बातें इस वाद्यय में मुख्य हैं, लिखित परम्परा से अधिक दाघिदः परम्परा पर बछ, मूल शान-सम्पद्‌ को सतत उपइंहित करने की अनिवायंता में विश्वास तथा स्व के उत्सर्ग द्वारा स्वाधीनता की परिकव्पना | ये तीनो बातें वैदिक साहित्य की आधारपीठिका बनाती हैं| इस साहित्य के 'श्रति? नाप्त में वाघिक परम्परा का, वेद! नाम में ज्ञानसंपद्‌ का तथा अपोरुषेय” नाम में धीनता का अथ निहित है, श्रुति? है, इसलिए श्रवण की इच्छा होनी च ॥ए, शश्रुषा होनी चाहिए, गुरु के प्रति प्रणिपात होना चाहिए, दाव को आभार-प्रणति होनी चाहिए और होनी चाहिए. उस समध्ष्त प्राण व्यापार की झंकृति जो शुरु के उपदेश में सुनने को मिंछ चुकी है। इसलिए प्रत्येक अक्षर, प्रत्येक स्वर को सुरक्षित करने के लिए सहितापाट, पदपाठ, क्रमपाठ, जदापाठ और घनवाठ जैसे उपायों का आविष्कार किया गया | संहितापाठ में इकाई अधधर्व् है, पद में अकेला पद, क्रम में एक पद उत्तरवर्ती पद के साथ संहित है और जय में क्रम की अनुलोम और विलोम से तीन बार आवृत्ति, घन में पदों की आदत्ति अनुलोम और विछोम क्रम से अनेक बार होती है। उन उपायों के द्वारा श्रति की रध्य की गयी है। बिना किसी अद्यतनल्म्य साधन हे उच्चारण को यथापत्‌ शुद्ध रखने का यह प्रयत्न समस्त विश्व के ज्ञान के इतिहास में अद्वितीय है | बेद का अर्थ है साक्षात्‌ प्राप्ति, उपलब्धि, ज्ञान। परम्परा में ऋषि मन्त्रद्रष्टा कहे गये हैं, उसका अभिप्राय यही है कि साक्षात्‌ आररोक्षानुभूति के द्वारा घन ऋषियों को यह सम्पदा प्राप्त हुईं। यद्द इस्ौलिए अध्येता को केवर स्थाणुरय भारहार:! बनाने तक नहीं गतार्थ होती, यह सम्पदा माँगती है उसकी अपरोक्षानुभूति




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