कवितावली | Kavitawali

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Kavitawali by इन्द्रदेव नारायण - Indradev Narayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२५ अयोध्याकाण्ड पात भरी सहरी, सकल सुत बारे-बारे, केवटकी जाति, कछु बेद न पढ़ाइहों | सबु॒परिवारु मेरो याहि लागि, राजा जू, हों दीन बित्तदीन, केसे दसरी गरढ़ाइहों।॥ गौतमकी घरनी ज्यों तरनी तरेगी मेरी प्रशुसों निषादु छे के बादु ना बढ़ाइही | तुलपीके ईस राम, रावरे सों साँची कहों बिना पग धोए नाथ, नाव:ना चढ़ाइहों | ८ ॥ घरमे पत्तलभर मछलीके सिव्रा और कुछ नहीं है और बच्चे छोटे-छोटे है [ अभी कमाने योग्य नही है ]), जातिका मैं केवठ हूँ, उन्हें कुछ वेद तो पढ़ाऊँगा नहीं | राजाजी ! मेरा तो सारा परिवार इसीके आश्रय है तथा मैं धनहीन और दरिद्व हूँ, दूसरी नौका भी कहाँसे बनवाऊँगा। यदि गौतमकी ख्रीके समान मेरी यह नाव भी तर गयी तो हे प्रभो | जातिका निषाद होकर मैं आपसे बात भी नहीं बढा सकूँगा ( झगड नहीं सकूगा ) । हे नाथ ! हे तुल्सीश राम ! आपसे मै सच कहता हूँ, बिना पेर धोये आपको नावपर नही चढ़ाऊंगा । जिन्हको पुनीत बारि धारें सिरे पुरारि, त्रिपधगामिनि-जसु बेद कहें गाईके। जिन्हको जोगींद्र मुनि बूंद देव देह दमि, करत बिविध जोग-जप मनु लाइके।॥ तुलसी जिन्हकी धूरि परसि अहल्या तरी, गोतम सिधारे गृह गोनो-सो लेवाइके ।




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