वीर - सतसई | Veer - Satasai

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Veer - Satasai by वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला शतक ] श्३ | कादर तो जीवित मरत दिन में बार हजार | | प्रान-पखेरू बीर के उडत एकही” बार ॥७७॥ श्वान-सीच मरिहे कहूँ, घिक, रण-कादर नीच ।!। पुएय-प्रतापनु पाइयतु शुद्ध युद्ध-थल्न-मीच ॥ »८॥ पवित्र ती्ये अरे, फिरत कत, बावरे ! भटकत तीरथ भूरि | अजों न धारत सीस पै सहज सूर-पग-धूरि ॥ ७६॥ बसत सदा ता भूमि पै तीरथ लाख-करोर । लरत-मरत जहाँ बाँकुरे विरुम्कि बीर वरजोर ]| ८०॥ जगी जोति जहाँ जुझ की, खगी खड़ खुलि भ्कूमि । रँगां रुधिर सों थूरि, सो धन्य धन्य रण-भूमि ॥ ८१॥ ' तहाँ पुष्कर, तहँ सुरसरी, तहोँ तीरथ, तप, याग | उठयौ सुबीर-कबंध जहाँ, तहेँईं पुण्य प्रयाग ॥८२॥ सगर-सौहेँ सर जहाँ, भये मिरत चकचूरि | बडभागन तें मिलति वा रण-आगन की वबूरि ॥ ८३२॥ के कृपाण की धार, वे अनल-कुंड को ठाट। एही वीर-बघून के, 8 अन्हान के घाट ||८४॥ अ्रनल-कुंड, असि-धार, के रकत-रंग्यो रण-खेत । लय तीरथ तारणु-तरण, छिति, छत्रिय-लिय-हेत ॥ ८५॥




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