ऐसे जीयें | Aise Jeeyen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जिनवाणी को समझे और स्वीकारें ] [ & तो आत्म-शक्ति की अनूठी अपूर्वे उपलब्धि हो जायेगी । मिथ्यात्व को जड़ मूल से उखाड़ने के लिए संवेग भ्रति श्रावश्यैक है । विभाव वृत्तियों से जितनी विषमता जीवन में व्याप्त है, उसे स्वभाव वृत्तियों में आकर समता में बदलने का यह दुर्लभ मनुष्य जन्म का भव्य प्रसंग मिला है। जिसमें ज्ञान नहीं, उपयोग नहीं वह जड़ तत्त्व है, जो जड़ है, उसमें चेतना नहीं होने से राग-द्वेषादि कुछ भी वृत्तियाँ नहीं होती हैं, राग-हेष संकल्प-विकल्प की स्थितियाँ चैतन्य में बनती हैं । वह चेतन्य अपने-अपने निज स्वरूप को छोड़- कर राग-ह्वेषादि विभाव वृत्तियों में बह रहा है । उसे विभाव से हटाकर स्वभाव में लाना है। जब आत्मा स्वरूप में पूर्ण विकसित हो जाती है, अर्थात्‌ वह सर्वेज्ञ सर्वेदर्शी बन जाती है, उस अवस्था में, उसमें, राग-द्वेष नहीं रहते हैं । वह चेतना राग-द्वेष रहित बन जाती है । वर्तेमान में इस संसार में रह रहे व्यक्ति बंध से जकड़े हुए हैं और दुःख भोग रहे हैं । यह चतुर्गंति रूप संसार एक तरह से जेल ही है । जहाँ यह जीवात्मा कर्म बेड़ियों में बंधी विविध यातनाएँ सहन कर रही है, पर आज भौतिक-ऐश्वर्ये- विलास को प्राप्त मानव कहाँ मान रहा है कि मैं जेल में हूँ ? यही नहीं अ्रनन्त शक्तिमय आत्म स्वरूप से अनभिज्ञ बन, राग द्वेष आदि वृत्तियों को विकसित करता हुआ इस पवित्र आत्मा को संसार रूपी जेल में लम्बी स्थिति तक रखने का कार्य कर रहा है। यह मानकर चलिये कि राग, द्वेपघ, आसक्ति, मोह आदि- आदि जो आत्मा को मलिन बनाने वाली विभावज-वृत्तियाँ हैं, उनसे यह श्रात्मा जितनी-जितनी परे हटती है--उतनी-उतनी अपने निजी आानन्दमय स्वरूप की अभिव्यक्ति प्राप्त करती है। जितनी-जितनी त्याग वृत्ति जीवन में पनपती है, उतनी-उतनी बंधन से आत्मा मुक्त होती है । तपश्चर्या शरीर से ममत्व हटाने पर ही हो सकती है । जब तक शरीर पर मूर्छा भाव है, तब तक आप तपश्चर्या में अपना कदम आगे नहीं बढ़ा सकोगे । आज कई व्यक्ति स्वयं तो आसक्ति को नहीं छोड़ते पर जो अन्य आसक्ति छोड़कर तपोमार्ग में आगे बढ़ना चाहते हैं, उसमें भी बाधक बनते हैं। मैं आपसे यही कहना चाहूँगा कि आप तपस्या न भी कर सकें, तो कोई बात. नहीं, पर अन्य-प्रन्य भी बहुत सी ऐसी बातें हैं, जिनसे आसक्ति हटाकर अपनी आत्मा को कर्म से हल्का बना सकते हैं । जैसे व्याख्यान स्थल में हों तो जीमन की आसक्ति को छोड़ें, स्वधर्मी अन्य भाइयों को भी बैठने का बराबर स्थान देवें, किसी के द्वारा धक्का लग जाय तो क्षमा गुण प्रगट करें । आज के लोग, किसको महत्त्व दे रहे हैं, भौतिक सम्पत्ति को या आध्या- त्मिक सम्पत्ति को ? पैसों का मूल्यांकन करना है, अथवा भगवान्‌ की आज्ञा का.




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