श्री प्रवचन सार टीका भाग - 3 | Shri Pravachan Tika Bhag - 3

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Shri Pravachan Tika Bhag - 3  by ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद जी - Brahmchari Seetalprasad Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छठीय खण्ड 1 ६ समर ि4++० >> 3-05. 20०72... मा क्से इस तरह क्षमाभाव करता है | उस्ते पीछे विश्वय पचाचारफो और उम्रके साथक आचारादि चारित्र ग्रधोमें कहे हुए व्यवश्र पत्र प्रकार चारित्रतों जाश्रय करता है| परम चेतन्य मात्र निन जात्मतत्व ही सत्र तरहमे अहण कने योग्य है ऐेमी रचि सो निश्चय सम्यग्दगन है, ऐसा ही ज्ञान मो निश्रैयसे सम्यग्भान है, उप्ती निन खमायमे निश्चल्तासे अनुभव करा मो निश्चय प्रम्यम्चारिय है, सबे परठव्योंी इच्छासे रहित रोना प्लो निश्चय तपश्चरण है तथा अपनी आत्मगक्तिझें न ठिपाना सो निश्रय वीर्याचार है इस तरह निश्चय पचाचारा म्वरूप गानना चाहिये | यणा नो यह व्याख्यान क्या गया कि अपने वधु आत्कि सात श्रमा ऊंगेये स्लो यह कथन जति प्रसपह्ठ अर्थात्‌ अमर्योटाके निषेषरे लिये है। दीता लेते हुए इम बातसा नियम नहीं है फ्रि क्षण इरए विना दीक्षा न ऐेवे। क्यों नियम नहीं है. | उसके लिये जले हैं कि पटले फल्में मरत, समर, राम, पाडवारि बहतसे रानाजेनि मिनटी गर घारण थी थी | उसके परियाग्के मध्यमें नर कोड भी मिथ्याहष्टि होता था लत धर्ममें उपसग भी फरता थी तेथा यदि कोई ऐसा माने जि उन्धुननोड़ी सम्मति उसके पीढे सत्र उुढुगा तो उसके मतमे अधिकतर तपश्ररण हो न होतरेणा, रपोंकि भर किमी तरहसे तप अहण करने हुए यरि अपने सयधी आदिमे ममताभाय वफ़े तय जोई तपस्वी ही नहीं होमक्ता | जमा डिछाहे-८ जो सकुलणयररण पुख चरउण कुणइ य ममत्ति] | पबरि दिंगयाती समममारेण णिम्मारो ॥ ”




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