जीने के लिये | Zeene Ke Liye
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
400
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पर रबखे दीपकके क्षीण प्रकाशसे उसके मुंहकी भोर देख रहे थे।
राघाके खूनसे भरे सुन्दर-गोरे उस हँसमुख चेहरेका कही पता मे
था। उसके गाल भीतर धेंस गये थे और आंखे कुऐँमें डबीसी
मालूम पड़ती थी। उसके पतले ओठ सूख गये थे और चेहरेपर
भुरियाँ पड रही थी। उसके सरके काले केश बहुत कम बच
रहे थे। राघा अ्साढसे ही वीमार पड़ी थी--बदुखार श्ाने लगा
था; लेकिन, कितने दिनोतक लौटूसिहको उसने इसका पता
भी नही लगने दिया! शरीरकों गरम देखकर जब कभी लौदूसिह-
ने पूछा तो कह दिया कि जरसा हैं। भरीरमे शवित कायम
रखनेके लिए वह जबरदेस्ती कुछ स्रा लिया करती थी । राघाने
धरका काम-काज तब तक नहीं छोडा, जब तक बीमारीने उसे
घारपाईपर पटक नहीं दिया।
वंद्यने बतलाया कि पाण्डुरोग है भ्ौर, लौदूसिहने अपनी सारी शवित
राघाकी चिकित्सामे लगाई । दस-वारह मीलके भीतर कोई अस्पताल न
था और दूरके सरकारी ग्रस्पतालमे राधाकी भर्ती हो जाती, इसमें भी
संदेह था; वयोकि लौदूसिहको किसी प्रुभावशाली पुरुषकी न सिफारिश
मिलती और न उसके पास उतना रुपयेका ही वल था । लेकिन, दो-चार
कोसके भीतर जितने भी वैद्य-हकीम थे, सबके ही दरवाज्योकी
उन्होंने ज्लाक छान डाली। सिलाई और बकरीसे राधाने जितने
रुपये जमा किये थे, सब खर्च हो गये । बकरियाँभी विक गई।
दस-दस वीस-वीस करके लौटूसिहने डेढ सौ रुपये साहुसे उधार
ले लिये। साहुने नौकर जानकर बड़ी मेहरबानी की थी और
उनके दी एकड़ खेतको मकफ़ूल रखकर रुपया सेकड़ेपर कर्ज दिया
था। लौटूसिंह खूब समझते थे कि वह कँसी आर्थिक कठिनाइयो-
में प्रपनेको डाल रहे हैँ, लेकिन बह अपने शरोर भर वच्चोकों
बैचकर भी स्थरीकी प्राणभिक्षा पानेके लिए तँयार से। महीने
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