जैन भजन संग्रह | Shari Jain Bhajan Sangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ह५ ] दाखि अनन्त चली जगनायक्ष, चारों घातक रे टरे 1! चार अधघातक दाल्ति बिना चिल, मारे आापदो मरे मरे निज अ्जुभूति परी पर दाथन, ताकारल -ि सरें थरे | लय आइ अपर च्रमें तब, सकल मचारथ खरे खरे 1 ६ ॥! जे जे कार सचो चिसुचन में, इन्द्रादिक एग परे परे ॥ नैनानन्द मच चल कायसूं , दिंत कर वन्दन करे करे ॥ ४ ॥ राग जन्नला-टुपरी श्री दासुपज्य] पूजत क्‍या नहिरि मतिंमंद, दासपूज्य जशिनपद अरविंद ॥ टेक 1। चाल ब्रह्मचाय संवतारो, परम दिरस्वर सुद्रा धारी । दुचिधि परित्नद्द संगतजाजिन, गुण अनन्त खुख संपतसिषु ॥३॥ ध्याता ध्ययं ध्यान विभाशी, छाता ज्ञेयं ज्ञान प्रकादी 1 पापातिक्ष विमुक्तमछीघं, तारण तरण सद्दज चिरद्धन्द ॥ २ ॥ मदोमा वणत गणपधघर हारे. चलन अगाचर हू युणसारे । परसलत सात जलतम लसदरखस, सामंडल अतिदाय अचलंत ॥ ३ ॥ प्रातिद्दायं चचुमज्लुछ दूर्व , सेचत खुर चर मु गण सचं । पांचवार ज्ञाह्दि पुजद आये, चं पापुर सुर इन्द्र फलद्र ॥ ४ ॥ चासदघ कुछ चंद्र उजागर, जया जयावात सुत खुण चागर । दगसुख वीतराग लि तुमझू , आय दारण काट भवफंद पा ३७०-रागनी घनाश्री ( विमलनाथ ) अजब मोहिं विमछू करो, हें चिप जिस अवमोहि दिमखूकों ! टेक घर्में. सुधारल प्यास लगत गुरु, घिपय कलंक दरों | दीतरामता साव प्रकाद, दिव मग साहि घरये ॥ ६ ॥




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