योगदर्शनम् | Yogdarshanam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२८ . यींगदरनत विषयवती वा प्रशत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थिंतिनिबेन्धेनी३२५॥ दो०-ओरों कहतत उपाय अब, विषयावती सुमंधि ॥ चितकी वृत्ति निवृत्ति कर, मनंको रांखत बैंधि ॥ का जी के. ७50 अथ-जरभी 2टपाय अब ैित्तकी वृत्तियोंके निरोधका कहते ह कि विषयवती अवृत्तिके उत्पन्न हो जानिसेभी चित्ते ध्थिर हो जाता है ॥ भा. चो.-नासिकाग्र संयम ने करई। साक्षात्‌ होत सुगंधी तबहीं ॥ जिहा अग्र मध्य ओर मूंछा | रसस्पशे राब्द असुकूछा ॥ हुई प्रसन्न संयम अभ्यासा | विषयवृती जननी विश्वासा ॥। शाद्न कथित अनुभव कर जोई । श्रद्धांयुत चित स्थिर होई अथ-नासिकाके अग्रभागमें संयम करनेसे सुगंधिका साक्षात्‌ होता है जिद्नाके अग्रम संयमसे रस, मध्यम संयमसे स्पशे, मूलमे संयमसे शब्दका साक्षात्कार होनेसे इसका नाम विषयवतत प्रव्वात्त हे । इससे जब सुर्गाधे आदिकका साक्षात्कार हो जाता है तब विश्वास हो जाता है कि स॒क्ष्म पदार्थेमेंभी संयम किया जावेगा वों उसकामी साक्षात्‌ हो सक्ता हैं इस विश्वाससे अत्यंत सूक्ष्म जो ई वर है उसमें मनको जोडकर साक्षात्‌ करानेसे यहभी चित्तकी स्थिति करनेवाली है अथवा शास््रमे कहे ऐ छा हुए किसी अनुभवसेमी योगीकी अबृति इंश्वरमें होती है ओर इंश्वरका साक्षात्‌ होने वे माक्ष होती हैं इसीस विषयवती प्रवृत्ति मी मोक्षका एक उपाय है ॥ ३५ ॥ विशोका वा ज्योतिष्मती ॥ ३६ ॥ दो०-विज्ोका वा ज्योतिष्मती, चित्त स्थिरकर सृल-। दुखहर करत प्रकाह्न अरु, संवित प्रवृति अश्वूल ॥ अध-विशोका और ज्योतिष्मती यहं दोनों रूप संवितके है विशोकासे दुःखोंका माश होकर शोकरहित होता है जोतिष्मतीसे प्रकाशकी प्राप्ति होती हे ॥ भाष्य दो ०-हूदय मध्य जो कमठ है, ताहि अधोप्तुख जान । रेचकृतें कर ऊपप्ुख, सुपमन संयम मान ॥ मनकर संवित होत दे, गस स्वंरूंप कर ध्यान । सू्यचंद्र उडुगंगनकी, ज्यीतिं परत पहिचान ॥




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