तत्त्व चिन्तामणि भाग - 3 | Tattv Chintamani Bhag - 3

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Tattv Chintamani Bhag - 3 by जयदयाल गोयन्दका - Jaydayal Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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, समयका सदुपयोग - श्र मानवी बुद्धिरूपी गजसे वास्तविक उन्नतिका माप हो ही नहीं सकता । वह गज उसकी सीमातक नहीं पहुँच सकता । जहाँ सीमा शेप हो जाती है, देहामिमानका सर्वथा नाश हो जाता है। बहाँ तो इस बातको माननेवाल्य या कहनेबाछा कोई धर्मी रह नहीं जाता कि मुझको भत्र कोई कर्तव्य नहीं है. और जबतक देहा- मिमान है. अर्थात्‌ जबतक्‌ देहको आत्मा माननेवाला या देहका खामी बना हुआ कोई पर्मो है तबतक कर्तव्यका अन्त मान लेना बड़ी भारी भूल है | जबतक देहमें किसी भी रूपमें अपनी व्यवस्था करनेबाढा, अपनी स्थिति सुमझनेवाण कोई धर्मी है तबतक उसको उत्तरोत्तर उन्नतिके प्रयत्नमें छगे रहना चाहिये | जो पुरुष परमात्मा- को तत्तसे जानकर उसे- प्राप्त हो जाता है, यद्यपि उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता, तथापि छोक-उद्घधारके छिये उसके द्वारा भी कर्म होते रहते हैं | अवश्य ही उसके कर्म अकर्म ही बतलाये गये हैं । उन्नति चाहनेवाले पुरुषके लिये कर्तन्यकी समाप्ति कमी होती ही नहीं | संसारमें निषिद्ध कर्म करनेवालोंकी अपेक्षा निषिद्ध कर्म न करनेवाले उत्तम हैं, उनसे उत्तम वे हैं जो धन, पुत्र, त्री, मान, बड़ाई या खर्गादिकी कामनासे उत्तम आचरण और ईश्वरकी भक्ति करते हैं | उनसे श्रेष्ठ वे हैं जो सदाचार-पालन और ईश्वरकी भक्ति करते समय तो भगवानसे कुछ भी नहीं माँगते, परन्तु पीछे किसी संझ्ृव्म पड़नेपर उस भ्कूटकी निशृत्तिके लिये ईश्वरसे याचना करते हैं | उनसे भी वे श्रेष्ठ हैं. जो आ्मोद्धारके अतिरिक्त अन्य




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