परमार्थ - पत्रावली भाग - 2 | Parmarth Patravali Bhag - 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
182
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)द्वितीय साग
भगवान श्रद्धा उत्पन्न होती दे ओर उस अ्रद्धासे प्रेम नथा
भक्तिकों चूद्धि द्ोती दे ।
भगपानफ़े नामफा जप ओर स्वरूपका ध्यान एवं खार्थकों
त्यागकर दुर्सी ज़ीबॉकी सेवा करनेसे एवं स्यायोपाजित वव्यसे
सग्द्वीत आहार करनेसे अन्त करण पवचिन्न द्ोता है; तब श्रद्धा,
भक्ति एव प्रेमकी दुद्धि होती है। इनकी छुद्धि हीनिसे विपया-
सक्तिका नाश दो जाता हे भीर घिपयासक्तिके नाश हो ज्ञानेपर
काम-क्रोधादि पड़्रिपु फभी उत्पन्न नहीं होते । गोखामी
तुलसीदासजीने उत्तरकाण्टर्म कहा दै--
खढ कामादि निकट नहिं जाहीं | बस भगति जाके उर माहीं ॥
राममंगति सनि उर बस जाके | दुख छयलेस न सपनेहँ ताके॥
गरठ सुघासम अरि हित होई | तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ॥
नयद्धीप जाकर श्रीगाराह़ महाप्रभुके मन्दिरमे भजन-
फीर्मन करनेकी इच्छा प्रकट की सो उत्तम वात है ।
भगवानफ़े प्रेमी भक्त जहों हों, चद्दीं सब तीर्थ चास करते
हैं और जहाँ उनके प्रेमी भक्त मगवानफ़े शुण्णोक्रा फीर्तन करते
है धहों तो भगधान् खय विराजमान रदते दे। भगवानने
कहा द्वे--
नाह वसामि बैऊुण्ठे योगिना हृदयें नच।
मद्धक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद॥
इसलिये सत्पुरुषोंका सग अवच्यमेव करनेकी चेश करनी
चाहिये। सत्पुरुषोंकी महिमा श्रीमद्भागबत, रामायणादि अन्धोंमे
जगह-जगह गायी है |
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