श्रृंगार हाट | Srngar Hata

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डॉ. मोतीचन्द्र - Dr. Moti Chandra

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वासुदेवशरण अग्रवाल - Vasudeshran Agrawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका पर हैं। बाण ने कादंबरी में 'कर्णो्ुतकथेव सन्निहितविपुलाचला शशोपणगता च!, कह कर इस भाण के पात्र कर्णाछुत, विपुला और शश का उल्लेख किया है। श्री रामकृष्ण कवि के अनुसार ( भूमिका प्रृ० ३ ) यहाँ अचला से अचलपुर यानी आधुनिक एलिचपुर का तात्पय है जो शायद मूलदेव की कार्यभूमि रही होगी । पर पद्मप्राभ्ततक ( प्रु० ५७ ) के अनुसार तो शायद वह पाटलिपुत्र का रहने वाला था और उसका कार्य क्षेत्र उज्जेन था । पक्मप्राभ्तकममें सूत्रधार रगमच पर आते ही वसत का गुणगान आरम्भ करता है। सफेद फूलोंसे भरे कुरमक, अशोक की कोपले, कोयलों की कूक, मजरित आम के वृक्ष, चिडियो की चहचहाट, सिंधुवार और कुन्दठ के फूछ वसत की विशेषताएं थीं। लताओं से पेड जकड़े हैं, तिलक वृक्ष पर बैठी कोयल जूड़े-ली लगती है, कुन्द पर बेठा भौंरा कटाक्ष का काम देता है तथा सॉवली कलियों से कमलिनी शोमित है ( प्रृ० १-३ ) । देवदत्ता का प्रेमी कर्णासुत देवसेना के प्रेम में मधप्त दिखलाया गया है। विट यानी शश के अनुमार वह अनेक शास्रों का ज्ञाता, सत्र कल्लाओ में निष्णात और कामततन्न का पडित था ( प्ृ० ४) | उसका कामज्यर देवसेना के कारण था। उसकी ऐसी अवस्था सुन कर उसकी प्र यसी देवदत्ता के परिचारक पुष्पाजलिक ने आकर कहा कि उसकी मालकिन अपनी बहिन चण्डालिका ( देवसेना ) की बीमारी से उसे देखने न आसकी थी पर वह जल्द ही आने वाली थी | पुष्पाजलिक को जिंदा करके कर्णापुत्र ने अपने मित्र शश से कहा कि देवदत्ता के वहाँ आने पर वह उसके घर जाकर देवसेना की बीमारी के कारण का पता ल्गावि (८)। अपने काम पर निकलते ही पहले तो विट उजयिनी नगरी की शोभा का वर्णन करता है (८) | घूमते घामते उसने कात्यायनगोन्नीय शारद्वतीपुत्र सारस्वतभद्र नामक कबि को देखा। वह अपने घर के दरवाजे पर सफेद रग ह्वाथ में लिए आँखों से रस भावना प्रकट कर रद्द था। यह पूछने पर कि वह आकाश की ओर क्यों देख रद्द था उसने जवाव दिया कि काव्य का भूत उसे सता रहा था | कुढ कर विट ने कहा कि पुराने काव्यरूपी जूते गॉठने वाला वह मोची, अस्त- व्यस्त गायों वाले ग्वाले की तरह, केसे नए पदों की ख़ोज कर रहा था | बाद में भीत पर लिखे उसके वसत सम्बन्धी श्लोक पढकर वह आगे वढा ( १०-११ ) इतने में उसे पीठमर्द ददुरक की हँसी सुनाई दी | विट के पूछने पर उसने कह्दा कि वागीश्वर की पूजा करना मानों समुद्र पर पानी छिडकना या । पर विट ने जवात्र दिया कि जिम्त तरह सूर्य की पूजा दीपक से, समुद्र की पानी से, वसत की फूलों से होती है उसी तरह वह वागीश्वर की पूजा बातों से कर रहा है । विपुलामात्य को देखकर विट ने कहा कि वह मूलदेव के देवदत्ता के साथ फँस जाने से विपुला का पक्षु लेकर उससे नाराज था, पर बिठ ने उसे बताया कि कर्णापुत्र स्वय विपुला को मनाने गया था । पर उसके ओर उसको सखी अचन्तिसुन्दरी के मनाने पर भी वह नहीं मानी और उसे फटकार विया। यह सुन कर विपुलामात्य उसे उलाइना देने चला गया ( १२-१५ ) | विपुलामाल्य को ब्रिदा करते ही वि: की मुलाकात वैयाकरण दन्दशूकके पुत्र दत्तकलशि से हू गई | अपनी सूरत से वह बहस में मार खाया हुआ ठीख पडता या। उसकी कलह- प्रिय वाणी जरा-सा छूते ही मन्दिर के घण्टे की तरह टनयनाने लगती थी। नृपुरसेना की पूत्री




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