समाधितंत्र | Samadhitantra

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Samadhitantra by आचार्य प्रभाचन्द्र - Aacharya Prabhachandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- १९ | क्योंकि शतक भ्न्थके लिये ऐसा नियम नहीं है कि उसमें पूरे १०० ही पद हों, प्रायः १०० पथ होने चाहिये--दो, चार, दस पद्य ऊपर भी हो सकते हैं । उदाहरणकऊे लिये भर हरि-नीतिशतकमे' ११०, चेराग्यशूनकमे' ११३, भूधर-जैनशतकमे' १०७, ध्यानशतकमें १०५ और श्रीसमन्तभद्रके जिनशतकमें ११६ पद्म पाये जाते हैं । अतः प्रंथका उत्तर नाम या उबनाम 'समाधिशतकः द्वोते हुए भी उसमें १०५ प्योंका होना कोई आपत्तिकी बात नहीं है । दीकाकार प्रभाचन्द्र इस ग्रन्थके साथमे जो संस्कृत टीका प्रकाशित होरही है, उसके रचयिता प्रभाचन्द्र! हैं । अन्तिम पुष्पिकामें प्रभाचन्द्रकों 'परिडत श्रभाचन्द्र' लिखा है; परन्तु इससे उन्हें कोई ग्रहस्थ परिडत न सममः छेत्ता चाहिये । टीका-प्रशस्विमें अभेन्‍्दु! के लिये प्रयुक्त हुए प्रभु आदि विशेषणोंसे यह साफ जाना जाता है कि वे कोई आचाये अथवा भट्टारक थे। अविद्वान्‌ भद्टारकोंसे व्याइत्ति करानेके लिये बादकों अच्छे पढ़े-लिखे विद्वान भद्टारकोंके नामके साथ परिडत? विशेषण लगाया जाने लगा था; जैसा कि आजकल स्थानकवासी समाजमें जो भुनि अच्छे पढ़े-लिखे विद्वान. मिलते हैं उन्हें 'परिडितमुनिः लिखा जाने लगा है। टीकाप्रशस्ति अथवा टीकाऊ उपसंहार-पद्ममे टीकाकार प्रभाचन्द्रका न तो कोई विशेष परिचय है और न टीकाके बननेका समय ही दिया है। टीकाकारने कहीं पर अपने गुरुका नागों- ललेख तक भी नहीं किया है। और जेनसमाज में प्रभाचन्द्र! नासके ,बीसियों मुनि, आचार्य तथा भट्टारक होगये हैं, जिनमे'से बहुतोंका संक्षिप्त परिचय सने र॒त्नकरण्ड- श्रावक्ाचारकी अपनी उस प्रस्तावनासे' दिया है जो माणिकचन्द्र-म्रन्थमालासे' प्रकट होनेवाली सटीक रत्नकरण्डश्रावक्राचारके साथ श्रकाशित हुई है । ऐसी हालतमें यह टीका कौनसे प्रभावन्द्रकी बनाई हुई है और कब बनी है, “इस प्रश्रका उत्पन्न होना स्वाभाविक है | ; जहां तक मैंने इस प्रश्नपर विचार किया है मुझे इस विपयमें कोई संदेह माल्म नहीं होता कि यह टीका उन्हीं प्रभाचन्द्राचायेकरी चनाई हुई है जो कि रत्न- करशणडश्रावकाचारकी टीकाके कतो हैं। उस टीकाके साथ जब इस टीकाका मिलान किया जाता है तब दोनोंमें बहुत वड़ा साहश्य पाया जाता है । दोनोंकी प्रतिपादन- शैली, कथन करनेका ढंग और साहित्यकी दशा एक-जैसी मातम होती है। वह भी इस टीकाकी तरह प्रायः शब्दानुवादको ही लिए हुए है। दोनोंके आदि-अन्तमें एक एक ही पद्य है और उनकी छेखन-पद्धति भी अपने अपने श्रतिपाद्य विषयक्री दृष्टिस समान-पाई जाती है। नीचे इस साहश्यका अनुभव करानेके लिये कुछ उदाहरण नमूनेके तौर पर दिये जाते हैं :-- (१) दोनों टीकाओंके आदि मंगलाचरणके पद्य इस प्रकार हैं :-- * + + * मंशो ् सप्तन्तभद्र॑ निखिलास्सबोधन जिन॑ प्रणम्धाखिलकर्मशोधनम्‌ | ; निवन्धन रसनकरण्डक॑ पर॑ करोमि भव्यप्रतिबोधनाकरस्‌ ॥ १ ॥ ह --रत्नकरण्डकटीका




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