पद्मपुराणे | Padmapurane

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Padmapurane  by पन्नालाल साहित्याचार्य - Pannalal Sahityacharya

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

Add Infomation AboutPt. Pannalal Jain Sahityachary

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
प्रत्तावना श्ष पैदगम्घर--श्वेताम्बर' दब्दोंका स्पष्ट प्रयोग कही भी नहीं देखा जातां। ऐसी स्थिति होते हुए यदि इस भ्न्‍्थमें किसी जैनसाघुके लिए ्वेताम्बर (सियंवर) शब्दका स्पष्ट प्रयोग पाया जाता है तो वह इस बातकों सूचित करता है कि यह ग्रन्थ वि. संवत्‌ १३६ से पहलेका बना हुआ नही है जिस वक्त तक दिगम्बर बवेताम्बरके सम्प्रदाय भेदकी कर्पना रूढ़ नही हुई थी। प्रत्थके २२वें उद्देशामें एक स्थलपर ऐसा प्रयोग स्पष्ट हैं। यधा+- , * पेच्छइ परिभमंतो दाहिणदेसे सियंवरं पणओ । तस्स सगासे धम्मं सुणिऊण तबो समाढ्ततो ॥७८॥ बहू भणइ मुणिवारिदी णिसुण सुधर्म्म जिणेहि परिकहिय॑ । जेद्ठो य समणघम्मों साबयघम्मों य अणुजेंद्टो ॥७९॥ इसमें राजच्युत सौदाय राजाको दक्षिण देशमें भ्रमण करते हुए जिस जैच मुनिका दर्शन हुआ था मौर जिसके पाससे उसने श्रावकके ब्रत लिये थे उप्ते स्वेताम्बर मुनि लिखा गया है। अतः यह प्रन्य वि, संवत्‌ १३६ से पहलेकी रचना नहीं हो सकता 1 पहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि इवेताम्वरीय विद्वात्‌ मुनि कल्याणविजयजी तो अपनी 'क्मण भगवान्‌ महावीर” पुस्तकें यहाँ तक लिखते हैं कि--विक्रमकी सातवी शताब्दीस पहले दिगम्बर-इवेताम्वर दोनो स्थविर परम्पराजोमें एक दुसरेको दिगम्वर-इवेताम्व॑र कहनेका प्रारम्भ नही हुआ था । जैसा कि उनके निम्त चाक्यसे प्रकट है--- “इसी समय ( विक्रमकी सातवी शताब्दीके प्रारम्मसे दसवीके अन्त तक ) से एक दूसरेकों दिगम्वर- हवेताम्बंर कहनेका सी प्रारम्म हुआ” ॥ पृष्ठ ३०७ ; मुनि कल्याणविजयजीका यह अनुसन्धान यदि ठीक है तो पउमचरियका रंचनाकाछ विक्रम संवत्‌ १३६ से ही नही किन्तु विक्रमकी सातवी शतताब्दीसे भी पहलेका नही हो सकता । इस ग्रल्थका सबसे प्राचीन उल्लेख भी अभी तक 'कुवलूयमाला' नामके ग्रल्थमें ही उपलब्ध हुआ है जो शक संवत्‌ ७०० अर्थात्‌ चिक्रम संवत्‌ ८३५ का बना हुआ है। - (३) श्री कुल्दकुल्द दिगम्बर सम्प्रदायके प्रधान आचार्य है। आपने चारिसपाहुडमें सागार घर्मका वर्णन करते हुए सल्लेखनाको चतुर्थ शिक्षात्रत बतछाया है। आपसे पूर्वके और किसी भी ग्रन्थ इस सान्यता- का उल्लेख नहीं है और इसीलिए यह खास आपकी भान्यता समझी जाती है। आपकी इस मान्यता को पमचरिय' के कर्ता विमलसूरिने अपनाया है। इवेतताम्बरीय आागम सुजोमें इस मान्‍्यताका कही भो उल्लेख नही है। मुख्तार साहवको प्राप्त हुए मुनिश्री पृष्यविजयजीके पत्रके निम्न वाक्‍्यसे भी ऐसा ही प्रकट है--- इवेताम्बर आगमोंमें कही भी वारह ब्रदोमें सल्लेखनाका समावेश शिक्षाव्रतके रूपमें नही किया गया है) चारित्त पहुडके इस सागार धर्मवाले पद्योका और भी कितना ही सादृदय इस पठमचरियमें पाया जाता है, जसा कि नीचेकी तुलनापर-से प्रकट है-- है पंचेवणुव्वयाईं गुणव्वयाईं हवति तह तिष्णि। सिकक्‍्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ॥१शा। धूछे तसकायवहे थूछे मोसे अदत्तयुले य 1 परिहारो परमहिला परिगहारंभ परिसाणं ॥२४॥ दिसविदिसमाणपठम अणत्यदण्डस्स वज्जणं विदिय । भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्यया तिण्णि शरप्ा डे.




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now