न्यायसिद्धान्जनम् | Nyaya Siddhanjanam
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
59 MB
कुल पष्ठ :
738
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ १६ |]
समान रूप से सहायक है। सांख्य से यहाँ भेद इतना द्वी है कि वहाँ पर तामस
अहंकार से सभी तन््मात्राओं की उत्पत्ति मानी गई है, जब कि यहाँ केवल शब्द-
तन््मात्रा की । सांख्य-संमत इन्द्रिय लक्षण में अप्राकृत इन्द्रियों का समावेश नहीं
हो सकता, इस लिये यहाँ इन्द्रियों का लक्षण सांख्य स्रे विज्ञक्षण है। इन्द्रियां प्राकृत
ओऔर अप्राकृत भेद से दो प्रकार की हैं। इसी प्रकार कुछ आचाये अव्यक्त, मदत्
और अहंकार को भी प्राकृत एवं अप्राकृत मानते हैं। मन को सांख्यदशन में
कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय उभयात्मक माना गया है। विशिष्टाद्वेत दशन में वह केबल
ज्ञानेन्द्रिय है |
वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय ने गंगानाथभ्का ग्रन्थमात्ना के अन्तर्गत चुने
हुए विशिष्ट संस्कृत ग्न्न्थों को हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पणी के साथ प्रकाशित करने
की योजना बनाई है । वेदान्तदेशिक और डनके अन्य नन््यायसिद्धाउ्जन के संबन्ध
में यहाँ बहुत कुछ लिख्लाजा चुका है। इस विषय के प्रसिद्ध विद्यान् वाराणसेय
संस्कृत विश्वविद्यालय में रामानुन वेदान्त के प्राध्यापक स्व० पण्डित नीलमेघाचार्यजी
को इसके अनुवाद और संपादन का काय सौंपा गया था। आपकी यह कृति अब
प्रकाशित होकर विद्वान् पाठकों के समज्ष आ रही दहै। सस््व० पण्डित जी ने अन्य
का अनुवाद समाप्त कर लिया था ओऔर प्रथम चार परिब्छेदों की टिप्पणियां भी
लिख चुके थे । वे पाँचवें परिच्छेद की टिप्पणियां अभी लिख ही रद्दे थे कि करालन काल
ने उनको इम से छीन लिया | वेदान्तदेशिक स्वयं अपने अन्थ न्यायसिद्धाज्जन को पूरा
न कर सके । उनके इस ग्रन्थ में सामान्य निरूपण भी पूरा नहीं दो पाया है। अद्वब्य
परिच्छेद के प्रारम्म में उन्होंने साइश्य, विशेष, समवाय, अभाव और वैशिष्टथ के
भी निरूपण की प्रतिज्ञा की है। विभाग का निरूपण करते हुए! वे कहते हैं कि---“अभाव-
निरूपणं यावदेतच्चोद्य मा सम बिस्मरः? ( पु. ६६५ ), किन्तु यह विधिविडम्बना है
कि वे अभाव का निरूपण कर न सके। याम्ुनमुनि के अन्थ सिद्धित्रय के आत्मसिद्धि,
ईश्वरसिद्धि और संवित्सिद्धि ये तीनों ही प्रकरण अपूर्ण हैं । भट्पराशर के ग्रन्थ
तत्वरत्नाकर का प्रमेय प्रकरण भी विच्छिन्न हो. गया--'प्रमेयनिरूपणविच्छेदात्?
( पृ. ६५१ ) | इस दुर्भाग्य परम्परा में आज हम देखते हैं कि आदरणीय पण्डितजी
न तो अपनी टिप्पणियाँ ही पूरी कर सके और न वह भूमिका ही लिख सके, निससें
कि उन्होंने अपने पूरे जीवन के अजित ज्ञान को उडेल्ने का संकल्प किया था। पण्डितजी
ने अपना पूरा जीवन भारतोय दरशन, विशेष कर रामानुज वेदान्त के अध्ययना-
ध्यापन में बिता दिया था। उस प्रतिभाशाली मनीषी की लेखनी से जो भूसिका
लिखी जाती, उसकी अपनी विशेषता होती ।
पण्डित को ० व० नीलमेघाचार्थय का जन्म फरवरी सन् १६०१ में कोडिपाकम् ग्राम,
ब ५ ः
दक्षिणो अर्काट जिक्षा, मद्रास राज्य में हुआ था। इनके पिता का नाम वरद् देशिकाचाय था:।
इनकी प्रारम्मिक शिक्षा तंजोर जिला के तिरुवैयार संस्कृत महाविद्यात्य में हुईं | सन् १६२२
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