संस्कृत काव्य धारा | Sanskrit Kavydhara

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Sanskrit Kavydhara by स्वर्गीय महापंडित राहुल सान्क्र्त्यायन -Late. Mahapandit Rahul Sankratyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऋगवेद ] १ चेंदिक काल ११ ३२ हे देव, तुम उस दुष्कर्मा मनुष्य को (अपनी) ज्वालासे वाधित करो । जो हमें मारना चाहता है ॥1३२।। ३३ हे दमनकर्त्ता अग्नि, भरद्वाजजो विपुल सुख श्रेष्ठ धन दो ॥३३।। ३४ प्रज्वलित आहुत घनेच्छुक, स्तुति द्वारा उज्वल समृद्ध अग्नि, / शत्रुओं को मारे ॥३े४ी।। ३५ (अग्नि) माता' के गर्भ में पिता' के अक्षय स्थानमें चमकते हुए सत्यके मूल-स्थानमें आ बैठे 11३५॥। ३६ हे विश्वदर्शक, जातवेद अग्नि प्रजा-सहित धनको लाओ, जो (अग्नि) द्यूछोकको प्रकाशित करता है ॥1३६॥। ३७ हे अग्नि, वलकारी रमणीय-दर्शन तुम्हें सेवन करते, हम स्तुतिया सृजन करते है ॥३७॥। ३८ है अग्नि, घूपसे मानों छायामें हम तुम्हारी शरणमे आये। तुम सुवर्ण सदृश हो ॥1३८॥। ३९ है अग्नि, वाणींसे मारनेवाले योद्धाकी तरह, तीखे सीगवाले साडकी तरह, तुमने दुर्गोको भग्न किया ॥11३९॥। ४० हाथमें ककणकी तरह, उत्पन्न शिशुकी तरह, सुन्दर यज्ञवाले प्रजाओकी अग्निको (ऋत्विकू) घारण करते हे ॥11४०॥। ४१ देवोकी तृप्तिके लिये अत्यत धनज्ञ देव अग्निको खूब घारण करो । वह अपने स्थानमे आकर बैठे ॥1४१॥ ४२ यज्ञमे प्रादुर्भूत प्रिय अतिथि अग्निको छा वैठाओ। वह गृहके स्वामीको सुख (दे) 1४२॥ ४३ हे देव अग्नि, जो तुम्हारे अच्छे अर्व है, उन्हे जोडो, (जो कि) क्रोध के लिये वहन करते हे 11४३॥। रे पृथिदी, 3 घोौलोक




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