लघु - सिद्धान्त - कौमुदी भैमीव्याख्या भाग - 2 | Laghu Siddhant Kaumudi Bhaimivyakhya Bhag - 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
748
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५] भैमीव्यास्ययोपेतायां लघु-कौमुधाम्
[लघु० | भू सत्तायाम् ॥0॥ कत् विवक्षायां 'भू+ल्' इति स्थिते--
प्र्थ:--भू धातु “सत्ता! अर्थ में प्रयुक्त होती है। कर्त् विवक्षा में वत्तमानकाल
में लेंट प्रत्यय होकर अनुवन्धों का लोप करने पर “'भू+-ल् बना। अब इस अवस्था
में अग्निमसूत्र प्रवृत्त होता है--
व्याप्या--अब जो धातु आरम्भ किये जा रहे हैं वे पाणिनिमुनिप्रणीत धातु-
पाठ से चयन किये गये हैं । इन घातुओं को घातुपाठ में दस श्रेणियों में विभक्त किया
गया है। यथा--
“स्वाद्यदादी जुहोत्यादिदिवादि: स्वाविरेध घ।
तुदादिध्च रुधादिइ्व तन-फक्रयावि-चु रादयः ॥।”
(१) म्वादिगण, (२) अदादिगण, (३) जुहोत्यादिगण, (४) दिवादिगण,
(५) स्वादिगण, (६) तुदादिगण, (७) रुघ्रादिगण, (८५) तनादिगण, (६) क्रभादिगण,
(१०) चुरादिगण । इन गणों का नामकरण उन में आने वाली प्रथम धातु के आधार
पर किया गया है। यथा--प्रथमगण का नाम उप्रमें आनेवाली प्रथम घातु “भू के
फारण म्वादिगण हुआ है । इसी प्रकार 'अद्' के कारण अदादिगण आदि जानें ।
घातुपाठ के भादि में सर्वप्रथम “भू” रखने का अभिप्राय भद्भूल करना है, क्योंकि
“भू शब्द ओं भूभु व: स्व” इन महाव्याहृतियों के आदि में प्रयुकत है तथा परब्रह्म का
वाचक भी है | धातुओं के आगे सप्तमीविभक्ति द्वारा जिस अर्थ का निर्देश किया
जाता है, केवल वही उनका अर्थ नहीं हुमा करता । धातुओं के अनेक अर्थ ह्वोते हैं,
यहां तो केवल प्राय: प्रसिद्ध अर्थ ही दिया जाता है। द्वोप अर्थ विस्तृत वाह्ममय से
समूह होती हैं और वह समूह कभी भी समुदितरूपेण देखा नहीं जा सकता । क्योंकि
अपान्तर क्रियाएं क्षणिक होती हैं, क्षण भर रह कर नष्ट हो जाती हैं। जब धूसरी
अवान्तर किया प्रारम्म होती है तव तक पहली नप्ट हो चुकी होती है । इसी प्रकार जब
तीपरी चौथी अवान्तर क्रियाएं प्रारम्म होती हैं तव तक पूर्व पूर्व क्रिया नप्ट हो चुकी
होती है, अत्त: उनका समूह कभी भी एक काल में नहीं वन सकता । जब समूह ही नहीं
तो उसका नाम क्रिया कैसे ? इसका उत्तर अत्यन्त वुद्धिमत्ता से कारिका में 'बुढथा -
प्रकल्पितापष्मेद:/ शब्द जोड़ कर दिया गया है। अर्थात् यद्यपि हम क्षण-वत्तिनी
क्रपाओं के समूह को किसी एक काल में इकट्ठा प्रत्यक्ष नहीं कर सकते तथापि अपनी
बुद्धि द्वारा उनके समूह को समझ सकते हैं । बस बुद्धि द्वारा उनके समूह फी कल्पना
कर अभेद समझ कर उप्तकी ही क्रिया ! सञज्ञा की जाती है।
(वेयाकरणभूषणसार के भमीभाष्य से उद्धुत)
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