सौंदरनंद महाकाव्य | Saundaranand Mahakavya

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Saundaranand Mahakavya  by दुलारेलाल भार्गव - Dularelal Bhargav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उपक्रम ११ सर्वोषधीनामिव भूभ॑वाय सबापदां क्षेत्रमिदं हि. जन्म |” अर्थात्‌ हे मनुष्यो, इसलिये संक्षेप में इस जन्म को ही जरा आदि व्यसनों की जड़ और दुःख का स्थान सममको । जिस प्रकार सब ओषधियों का उत्पत्ति-स्थान प्रथ्वी है, उसी प्रकार सारी विपत्तियों का उद्धव-स्थान' जन्म है। “आकाशयोनि: पवनो यथाहि यथा शमीगमेशयो. हुताशः ; आपो यथान्तव सुधाशयाश्च दुःखं॑ तथा चित्तशरीरयोनि ।” अथात्‌ आकाश जिस प्रकार पवन का उत्पत्ति-स्थान है, अग्नि जिस प्रकार शमी के गर्भ में अवस्थित है, जल जिस प्रकार प्रथ्वी के भीतर विद्यमान है, उसी प्रकार चित्त ओर शरीर ही' इस दुःख का मूल है । कवि ने हास्य, झआंगार, करुण ओर रौद्र-रस का वर्णन भी: अपने ओजस्वी शब्दों में किया है, जिसके अवलेकन-मात्र से चित्त में रसानुसार विकार पेदा हे जाता है । करुण-रस के वर्णन में कवि ने “अपिग्नावा रोदित्यपि' दुलति वज्स्थ हृदयम” इस भमवभूति की सूक्कि का सार्थक




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