परस्त्री | Parastri

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Parastri by विमल मित्र - Vimal Mitra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लेकिन आश्चयेजनक है सुललित का धय ! एक दिन मैंने पूछा चा--क्‍्यो रे, इतना गम्भीर गयों है तेरा शृंह ? गुललित प्रश्न के साथ-साथ ही हँस उठा । बोछा--बोछ सकते ही भा मंसार आखिर इतना जधन्य क्‍यों है ? पृथ्वी-भर के छोग इतने भिलारी वय है? “जपों ? किसकी वात कह रहा है ? युललछित बोछा-- किसकी वात नही करता, यही तू पूछ-- उमके बाद बार-बार उसमे अनुरोध करता, लेकिन सुललित उस बात के कोई जवाब नही देता! । और पीछे कोई जवाब देना पड़ेंगा, इसीलिए हम लोग के सामने से भाग जाता । एक दिन मुना कि इतने बडे परिवार के भीतर हो न हो सबके हांडी चूहहें अलग-अलग हो गये हैं । हूम छोग जब उसके घर में जाते तब देखते हि उनके एकतल्ले की बैठक में झाड,-बुहारी तक नहीं लगी है। बहुत दिनों पहले जब मालिक लोग वहाँ वेठते तव उप्तके भीतर कितनी साज-सज्जा थी। बढ़े बड़े आयलर्पोटिग टेंगे रहते दीवालों में। झालरें-रोशनदानियाँ झूलतीं कड़ी खूटियो में । मुहल्ले के विशिष्ट व्यक्ति या गष्यमान्य व्यवित के आमने पर इसी वे ठक खाने मे उनकी अभ्यर्थना की जाती । वह सब एक दिन था सुललित के घर से ! हम सक्, उसके दोस्त, थर्गेर के छोटे कमरे भें बंठे हुए दरवाजे के झरोखे से वहू सब देखते, और उसवे परिवार के ऐश्वरयं के, उनके बड़प्पन के और परम्परा-इतिहास के दर्शक होते । आज इतने दिनों के बाद वे सब बातें सोचने पर ही मानों शंका होती आँखें मूंदने १२ भी मानों वह सब दृश्य देख पायें । छगता है मानों बह यही उस दिन की बात है । लेकिन इतिहास के कक्ष-परिवर्तन के साथ-साथ एक दिन सबकुछ कैरे बदछ गया ! वह सुललित कहाँ चला गया, कहाँ गुम ही गया, यह सब झुपाह रखने का समय भी हम लोग उस समय नही पा सके 1 भगीर॒य था सुरूलित का पुराना नौकर । नौकर माने प्ररिचारक | परि चारक होने पर भी, कहना होगा, बह सुछलित का एक प्रकार से अभिभावग भी है । हम छोय जब उसके घर मे जाते तव सुलछित को पुकारते ही भगीरः बाहर निकल आता 1 हम कहते--भगीरय, अपने छोटे बाबू को एक वार बुढा दो तो--- भगी रथ गम्भोर प्रकृति का मनुष्प है । छोटी उमर से ही वह गम्भी है| कहता--छोटे वाब नही हैं-- है स




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