परस्त्री | Parastri
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
348
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)लेकिन आश्चयेजनक है सुललित का धय !
एक दिन मैंने पूछा चा--क््यो रे, इतना गम्भीर गयों है तेरा शृंह ?
गुललित प्रश्न के साथ-साथ ही हँस उठा । बोछा--बोछ सकते ही भा
मंसार आखिर इतना जधन्य क्यों है ? पृथ्वी-भर के छोग इतने भिलारी वय
है?
“जपों ? किसकी वात कह रहा है ?
युललछित बोछा-- किसकी वात नही करता, यही तू पूछ--
उमके बाद बार-बार उसमे अनुरोध करता, लेकिन सुललित उस बात के
कोई जवाब नही देता! । और पीछे कोई जवाब देना पड़ेंगा, इसीलिए हम लोग
के सामने से भाग जाता ।
एक दिन मुना कि इतने बडे परिवार के भीतर हो न हो सबके हांडी
चूहहें अलग-अलग हो गये हैं । हूम छोग जब उसके घर में जाते तब देखते हि
उनके एकतल्ले की बैठक में झाड,-बुहारी तक नहीं लगी है। बहुत दिनों पहले
जब मालिक लोग वहाँ वेठते तव उप्तके भीतर कितनी साज-सज्जा थी। बढ़े
बड़े आयलर्पोटिग टेंगे रहते दीवालों में। झालरें-रोशनदानियाँ झूलतीं कड़ी
खूटियो में । मुहल्ले के विशिष्ट व्यक्ति या गष्यमान्य व्यवित के आमने पर
इसी वे ठक खाने मे उनकी अभ्यर्थना की जाती ।
वह सब एक दिन था सुललित के घर से ! हम सक्, उसके दोस्त, थर्गेर
के छोटे कमरे भें बंठे हुए दरवाजे के झरोखे से वहू सब देखते, और उसवे
परिवार के ऐश्वरयं के, उनके बड़प्पन के और परम्परा-इतिहास के दर्शक
होते ।
आज इतने दिनों के बाद वे सब बातें सोचने पर ही मानों शंका होती
आँखें मूंदने १२ भी मानों वह सब दृश्य देख पायें । छगता है मानों बह
यही उस दिन की बात है ।
लेकिन इतिहास के कक्ष-परिवर्तन के साथ-साथ एक दिन सबकुछ कैरे
बदछ गया ! वह सुललित कहाँ चला गया, कहाँ गुम ही गया, यह सब झुपाह
रखने का समय भी हम लोग उस समय नही पा सके 1
भगीर॒य था सुरूलित का पुराना नौकर । नौकर माने प्ररिचारक | परि
चारक होने पर भी, कहना होगा, बह सुछलित का एक प्रकार से अभिभावग
भी है । हम छोय जब उसके घर मे जाते तव सुलछित को पुकारते ही भगीरः
बाहर निकल आता 1
हम कहते--भगीरय, अपने छोटे बाबू को एक वार बुढा दो तो---
भगी रथ गम्भोर प्रकृति का मनुष्प है । छोटी उमर से ही वह गम्भी
है| कहता--छोटे वाब नही हैं--
है
स
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