आर्य सिद्धांत विमर्श | Arya Sidhant Vimrash
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11.92 MB
कुल पष्ठ :
488
श्रेणी :
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नारायण स्वामी - Narayan Swami
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लाला ज्ञानचन्द्र - Lala Gyan Chandra
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)स्वागताध्यक्ष का भापण प्
ता ६-६५ ९७ १- ४९-९५ भी
अत: निवेदन है कि मेरी सम्मति में आर्यसमाज के विचार-स्वातरत्य
के पोपक होने के यह अर्थ कदापि नहीं हो सकते, कि इसके सभा-
सद॒ु जिस प्रकार के चाहें श्रपने विचार रक्खें, अथवा सास्तिक,
अआस्तिक, एकेश्वरवादी, अनेकेश्वरवादी, ज्ञान, गज्ला रनान, तथा
सद्यगान से मुक्ति और, वेद, बाइविल व कुरान को इंश्वरीय ज्ञान
सासने वाले आदि परस्पर विरोधी विचारों के रखने वाले भी अआाये-
ससाज के सभासद रह सकते हैं, क्योंकि आर्यसमाज के उपनियम
थारा ३ के अनुसार वह्दी मनुष्य आयंसमाज के सभासद वने
रह सकते हैं जो कि उसके नियमों में वणुन किये गए सौलिक
विचारों अथवा मन्तव्यों और आचारों को मानें, और आचरण में
लायें । नास्तिक, वेद-विरोधी और मूति-पूजक झ्मादि आयंसमाज के
सभासद वैसे ही न वन सकते हैं, न रह सकते हैं जैसे कि शराब
पीने वाले टैम्परेन्स सुसाइटी के । आआयंसमाज टैनिस क्लब तथा
फ्री मेसन सुसाइटी जैसी कोई क्लब व सुसाइटी नहीं हे कि उसमें
इकट्ठे होने वालों की क्तव व लोज-सम्बन्धी क्रियापद्धति तो
समान दो ओर धार्सिक विचार भिन्न-भिन्न भी हो सकें ।
मिन्नःसिन्न विरोधी विचार बालों को झायंससाज का सभासद
मानना दूसरे शब्दों में आा्यंसमाज को वेअसूला मानना है।
आर्यसभाज में. जो समाज शब्द आता है, वह किसी दूसरे
नियम रहित समाज में आये समाज शब्द की भाँति साधारण
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