उत्तराध्ययन सूत्र | Uttaradhyayan Sutra

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Uttaradhyayan Sutra by रतनलाल डोशी - Ratanlal Doshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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झण्नर है श्३ की न री 1 आई 'यआंब से पुज्जमत्थे सुविणीयसंसण, मणोरुई चिट्न३ कैम्ससेपया | तवोसभायारि समाहिसंचुड़े,महज्ज़ुई पंच बयाई पालिया।१७ : ऐसा शास्त्रज्ञ प्रशसनीय शिष्य, सशय रहित होता है । वह गुर की इच्छानूसा र, प्रवत्ति - करता हुआ, कर्मसमाचारी, दप समाचारी, और समाधि युक्त .सवरवान हीकर तथा महा- ब्रतों का पालन कर महान तेज वाला होता हैँ ॥४७॥ से देवगंधस्रमणुस्सपूहए, चइचु देह मत्तपंकपुल्वय ||, सिद्धे वाहनह सासए,देवे वा अप्परए महिड्दिए । ४ ८। तिवेमि। - , देव, गधर्व और)मनुष्यों से पुरनित वह शिष्य, मल मूत्र से भरे हुए|इस-शरोर को छोडकर, इसी ज़न्म में सिद्ध एव शाइवत हो जाता हैं. “यदि कुछ कर्म शेष रह जाय तो : महान ऋद्धियाली देव होता है । ऐसा में कहता हू ॥४८॥ है व््ष्स्झा $ हाऊ हे 15 +* ' ' दुइय परीसुहज्भयणां के ५ रथ सुय मे, आउस तेणं भगवया एय्मकक्‍्खार्य इृह खेलु यावीसं परीसद्वा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं- पवे- इया जे मिक्खू सुच्दा णु्चा जिच्चा अभिभधूय मिक्खायरियाए परिव्वयन्तो पट्टी ,णो विशिहरण्णेब्जा | कयरे खलु ते बावीसं




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