भारतीय कविता | Bharatiy Kavita

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Bharatiy Kavita  by जवाहरलाल नेहरू - Jawaharlal Neharu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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असमसमिया श्रे कऊंपण “दिस अर्थ : दैठ इज सफिशिएंट ” तम मुझे ध्वमा करो प्रथ्वी मैं क्पण हूँ तुम्हारे सब-कुछ दान ग्रहण करते हुए भी तुमको सचमुच में प्यार नहीं कर सका, यह मेरी अकुंठित स्वीकृति है में अकृतज्ञ हू । तुम्हारे आषाढ़ के आऔँसुओं को देखा उससे तुम्हारे बादल के वक्ष में चित्र अंकित किया तुम्हारी नदियाँ जीवन-गीति सुनाना चाहती हैं जो नियमों में नहीं बोल सकतीं तो मी तुम्हारा दान-विपुल स्नेह मैं सिफे अस्वीकार कर आया हूँ मैं तो इस पृथ्वी का नहीं हैं । यह नीलाकाश के किसी एक अद्दश्य देश में मानो इन्तजार कर रही है मेरी प्रिया, मेरी ही प्रिया, और मेरा घर, मेरा प्रेम । में मै मे आइत चैतन्य ने मुझे छा दिया छाया-सा मायामय ढरियाला चित्र-वह तुम्हारा दी था हे पृथ्वी ! हरी प्रथ्वी का आदिम अरण्य मैं उसका आदिम मानव । डाइनौसौर के साथ मेरा युद्ध अविराम है, ।




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