अहिंसा की विजय | Ahinsa Ki Vijay
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
226
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अहिसा की विजय ] [४५
मेरी जन्म-यात्रा का उद्देश्य अपना लक्ष्य अथवा शिवपुर की प्राप्ति
है। अन. में राज-सिहासन पर नही बैढेंगा। मुझे तो दीक्षा लेकर
अपना कल्याण करना है ।”
मत्री ने कहा--'ऐसा तो सभी राजा करते है। आपकी भी
कुल-परम्परा यही रही है कि युवराज को राज्य देकर संयम का
पालन करें । आपके पितामह जितशत्र् ने भी आपके पिता अमर-
दत्त राजा को राजमुकुट सौपकर सयम वरण किया था ।
“युवराज ! मैं कब कहता हैं कि आप सयम-वरण न करें ?
अवश्य करें, पर समय आने पर उसी तरह करे, जैसे आपके पूर्वज
करते आये है । अर्थात् आपके पुत्र हो, वह वडा हो और तब आप
उसे राज्यभार सौपकर चारित्र ग्रहण करें 1”
शोकसतप्त युवराज सुदत्त को भन्त्री की बात पर हँसी भा
गई । बोला वह---
“महामन्त्री | मेरे पिता की वात आप क्यों छोड गये ?
उगहोने भी तो यही चाहा था कि मुझ्ते राजमुकुट सौपकर दीक्षा
ले। पर कालवली ने उनकी इच्छा कब पूरी होने दी ?
“मन्त्रीवर ! मृत्यु का तो कोई भरोसा ही नही है। जाने
फब आ जाये ? अत. आप सब मुझे सयम की ही अनुमति
दीजिए ।
मन््ती ने पुन कहा--“युवराज ! पारलौकिक धर्म के साथ
लौकिक धर्म का पालन करना भी मनुष्य का कंब्य है। पिता
के राज्य का सचालन करना पितृऋण चुकाना है । आपका धर्म
यह भो है कि आप कलिन देश की प्रजा का पालन करें। कुछ
दिन तो करें ।
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