गुरु - कृपा | Guru - Kripa

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Guru - Kripa by वल्लभमुनिजी - Vallabhmuniji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ८ ) गरणभूत॑ दशर्म॑ गुणमण्डितम, गणधरं भज धर्मेधुरन्धरम्‌ (11१०॥॥ अथे-देव देवेन्द्रों और नर नरेन्‍्द्रों के द्वारा पूजित, दस विध यति धर्म से युक्त धर्म सुधा से संपुष्ठ, संघ के पालक, सदगुणों से मण्डित दसवे गणधर श्री मेतायजी की हे मन ! सेवा कर ।। [ ११ ] विमल- काञचन - वर्ण - समप्रभम्‌, सकल - लोकहितद्भूर - विश्व तम्‌ । मुनिप्रभास - मनिन्दित - मक्षरम्‌, गणुधर भज धर्मंधुरन्धरम्‌ 11११॥। श्रथे--निर्मल स्वर्ण वर्ण के समान शरीर को प्रभा वाले, सकल लोकों के प्रसिद्ध हितकारी, निन्‍दा से रहित, अक्षर स्वरूपी ग्यारह॒वे गणपधर श्री प्रभासमुनिजी की हे मन ! सेवा कर । [ १२ | गणधर - स्तवन मनसाइ्धुना, कृतमिदं सुनिवल्लभ - साधुना । पठति यो लभते श्र तदर्शनम्‌, चरितमुज्ज्वलमात्मविशोधनम्‌ ।1१२।। अर्थ--इस गणधर स्तवन को मनोयोग पूर्वक वल्लभमुनि नामक साधु (श्रमण) ने अभी बनाया है । जो भक्त इसे पढ़ता है, वह आत्म शुद्धि करते वाले सम्यग्‌ ज्ञान, दर्शन व चारित्र को प्राप्त करता है 1




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