गीता की विभूति और विश्वरूप दर्शन | Gita Ki Vibhuti Aur Vishav Roop Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[णते ततः स॒विस्मयापिष्टों दुप्रोमा धनंजयः | अणम्य शिरसा देव॑ क्तात्झलिरभापत ॥१४॥। अर्जुन उवाच सश्यामि देवास्य देव देहे स्ोलथा ... भृतनिशेपसंघान्‌। अदयाणमीसं कमलासनस्थ- सर्पी् सर्पाचुरगाश्र दिव्यानू ॥ १ै५॥| अनेकबाइद्रवक्‍्तनेत्र पश्यामि त्वा सपतोज्नन्तरूपमू । नान्त॑ं न मध्य न. पुनस्तवादि पश्यामि मिश्वेश्वर घिश्रूप ॥१९)) फिरीटिन गदिन॑ चक्रिण च तेजोराधिं सर्पतो दीसिमन्तम्‌ । पद्यामि त्वा दुर्निरीक्ष्य॑ समन्ता- दीसानलाफंचतिमप्रमेयमू.. ॥१७॥ स्वमक्षर परम... बेदितव्यं स्पमस्थ रिश्वस्स पर निधानम्‌ । स्वमव्यय... शाश्यतधमंगोप्ता .. सनातनस्त्व॒ पुरुपों मतों मे ॥१८॥| अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य मनन्तयाहु ... चाधिस्र्नेत्रमू ।




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