प्यास के पंख | Pyas Ke Pankh

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Pyas Ke Pankh by यादवेन्द्र शर्मा ' चन्द्र ' - Yadvendra Sharma 'Chandra'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्यास के पस ए्श हुए है। गह प्रतृष्षि मही होठी तो इस बच्चे की स्पृति भी सहीँ होती । यह कटूनितर प्रगदय है पर इसे चापभूसी नहीं । सरजू का जेहरा उदास हो गया था। बीचा ते जसके प्रस्तर कै मे को समझ छ्लिया दा। “बीशा ने उसके चेहरे शी उदासी प्रौर प्रांखों में सलकती पीड़ा को वैद्य कर प्रानन्‍्श का भ्गुभष किया। उन्तोप की धांछसी। में क्‍भ्रपराजेय हू। उसने मन ही मत कहा । रण पराजित हो गया। बीणा मे छतर्रंण पीर पर दिछा दौ | ठणिया सपाकर रप्पू पर आदर डालऐे हुए उसने बहा पाप बाकर प्राराम कीजिए । पौर तु ? महैं इस चादर प्रौर सतरंद पर पड़ बाऊगी। और यह विस्तर 1! कसे घ्ाप शिसौ को दास कर दीबचिए ।” 'तुम्द्वारे मत दो में महीं समझ सकता । तुम प्रदृसि के प्रमोध नियमों से परे: हो । प्राह्मपौड़न में पुछानुभूदि पाती हो ।” जिस प्रकार प्राप साम्दिक ऐगि कसा में प्रपमे भापको बैयं देते रहते हैं ।” सरमू चृप होकर बहां से लोट पाया 1 बीचा देव एठतर्र|म पर बैरागित कौ भांति छो गई । उस दिन का मादक प्रभात--- प्रशसाया हुप्रा सरजू फ्पोंद्टी जिस्तरे से उठा स्पोंड्री मप्पू ने मायकर यह शबर ती कि चक्त दादा प्राया है। “जक बाबा) सरजू चौक पड़ा। मापकर तीजे पाया | चक के पसे सगा) “कश प्राए यार ?” उसने बड़े प्यार सै कहा। “बस प्रमी (” /दिस्ठ॒र कह है ? पडिसी ले चुरा लिया।




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