कालिदास | Kalidas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १० ] कृल्नप्ृथ्वी जयार्थन राज्षवेह सहागतः । .._भकत्या भगवतश्शम्भोग्गुंहामेतामकारयत्‌ ॥५॥ [ सेलेक्ट इंच्क्रिप्शंस, कलकता विश्वविद्यालय, १६४२, 9० २७२ | श्री दिनेशचन्द्र सरकार नें प्राचीन अभिन्लेखों को एकत्र कर छाप दिया है ओर यथाशक्य उन पर टिप्पणी भी की है । अतः दिग्विजय का यह अभियान किस काल में हुआ इसका भी बोध हो सकता है। अभिलेख का काल शुघ्त सं० ८९ (ई० ४०१ ) दिया गया है। इससे सिद्ध होता है कि इस समय न्द्रगुप्त राजषिं समझे जा रहे थे । प्रतीव होता है कि इसी विजय से चन्द्रगुप्त विक्रमांक बने, “विक्रमादित्य' की प्रतिष्ठित डपाधि से विभूषित हुए, ओर उज्जयिनी को राजधानी का पदु मित्ला । कर्नाटक के कुछ शासकों ने उन्हें “उज्नयिनीपुरवराधीश्वर' कद्दा भी है। डाक्टर राधाकुमुद्‌ मुकर्जी का मत है-- चन्द्रगुप्त द्विंतीय के अभियानों एवं विजयों से यह प्रकट होता है कि एंवीं मात्रवा के विदिशा नगर से उनका सम्बन्ध था। जब कि, जैसा हम पहले देख चुके हैं, उनके साथ अपना सम्बन्ध प्रदर्शित करने वाले कनांरी प्रदेशों के कुछ शासकों ने उनका वर्णन पाटलिपुत्र के अधीश्वर के साथ-साथ “उजयिनीयुरबरा धीश्वए के रूप में किया है । उनका उजयिनी के साथ सम्बन्ध परम्परागत शकारि विक्रमादित्य से उनकी अ्रभिन्नता का अनुभोदन करता है । [ विक्रम स्टूृति-अंथ, ग्वालियर, छ० २०३ ] ओर डाक्टर हेमचन्द्र रायचौधुरी ने जिसे कृतज्ञ सन्‍्तति ने शक-ल्‍ृपति निषूदन एवं उजयिनीपुरवराधीश्वर के रूप में उद्धोषित किया [ वही ए० ४२७ ] कह कर इसी को दृढ़ किया है। अस्तु, चन्द्रयुप्त उजयिनीनाथ विक्रमादित्यभी हैं । प्रकरण प्राप्त तथा उपयोगी होने के कारण कुछ हरिस्वामी की जिज्ञासा भी हो लेनी चाहिए | श्री सदाशिव लच्मीधर कात्रे की सम्मति में--- ये हरिस्तरामी कई अध्यायों तथा कुछ ब्राह्मणों के अन्त में प्रशस्ति के पूर्व कुछ छोंकों के द्वारा अपना अधिक परिचय देते हैं। इन शछोकों की संख्या प्रायः तीन है । तथा उनका पाठ साधारणुतः इस प्रकार है-- नागस्वामिसुतो<वन्त्यां पाराशर्यों बसन्‌ हरि श्रत्यथ' दशेयामास शक्तितः पोष्करीयकः ॥१॥




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