विसुद्धिमग्ग | Visuddhimagga

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Visuddhimagga by स्वामी द्वारिकादास शास्त्री - Swami Dvarikadas Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२६ विसुद्धिमर्गटु- रक्षा करता है; उसी तरह योगाभ्यासी व्यक्ति को अपने उक्त चतुविध शील के प्रति प्रेम गौरव तथा एकनिष्ठा रखनी चाहिए। प्रातिमोक्षसवरशील को श्रद्धा से पूर्ण करना चाहिए । इन्द्रियसंवरशील को स्मृति से पूर्ण करना चाहिए, क्योंकि स्मृति से सरक्षित्त इन्द्रियाँ लोभ आदि से आक्रान्त नही होती । इसी प्रकार आजीवपारिशुद्धिशील को वीय॑ से तथा प्रत्यय- सन्निश्चित शील को प्रज्ञा से पूर्ण किया जाता है । पञ्च्चक-गणना से शील पाँच प्रकार का होता है -१ पय॑न्‍्तपारिशुद्धि शील, २ अपयंन्तपारिशुद्धि शील, ३ परिपृर्णपारिशुद्धि शील, ४ अपरामृष्टपारिशुद्धि शील, तथा ५. प्रतिप्रश्नब्धिपारिशुद्धि शील | इन पाँचो का विस्तार आगे ग्रन्थ से समझ लेना चाहिए। ६ अब छठा प्रश्न रह जाता है-- शील का मल क्या है ? शील का खण्डित होना ही उस का मल है। सात प्रकार के मैथुनधम के संयोग से शीलू खण्डित होता है। अत' शील-सरक्षण के लिए साधक को सात प्रकार के मेथुत्त धर्म से सत्तत बचते रहना चाहिए । दर्शन स्पर्शन, केलि आदि सात प्रकार के मेथुनधर्मो का विवरण प्रसद्भवश अंगुत्तरनिकाय (तुत्तीय भाग १९४ पु०) में दिया गया है। ७ साततवे प्रइन के उत्तर में सील का अखण्ड रहना ही उसकी विशुद्धि है। यह विशुद्धि शिक्षापदो के समादान से, प्रायश्चित से, सप्तविध मैथुनो से सवंथा दूर रहने से, क्रोध, ईर्ष्या आदि दुगुंणो के अनुत्पाद से तथा भल्पेच्छता सन्‍्तोष आदि गुणो के उत्पाद से साधक को सग्रह करनी चाहिए | २, धुताडनिर्देश भगवान्‌ ने, जिन जिज्ञासुओं द्वारा लाभ-सत्कार आदि का परित्याग कर दिया गया है उन अनुलोम मार्ग को पूर्ण करना चाहने वालों के लिए, इन १३ धुताड़ों का उपदेश किया है। ये सभी धुताज़ शील-समादान के लिए अत्यावश्यक है। क्रमश वे १३ घुताज् ये हैं-- १ पंसुकूलिकद्भ (पांशुकूलिकाज्), २. तेचीवरिकज्भु (ज्ेचौवरिकाज्), २. पिण्डपातिकज्भ (पिण्डपातिकाड्भु), ४. सपदानचारिकज्भ (सापदानचारिकाड्), ५. एकासनिकज्भ॒ (ऐकासनिकाज़ु), ६ पत्तपिण्डिकद्भ (पात्रपिण्डिकाजु), ७ खलुपच्छार्भात्तकड़ (खल॒परचा:द्भुक्तिकाज़), ८ आरख्मत्रिकाजु (आरण्य- काज़), ९. रुकक्‍्खमूलिकद्भ (वृक्षमूलिकाजड़ु), १०. अब्भोकासिकद्ध (अभ्यव- काशिकाज़्ु), ११. सोसनिकज्भ (इमाशानिकाज्ु), १२. यथासन्थत्तिकज्भ (यथा- सस्तरिकाज्ज), १३. नेसज्जिकड्भ (नेषय्काज़) । ये सभी अद्भ, ग्रहण करने से क्लेशनाशक होने के कारण, धुत्त (परिशुद्ध)




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