किरातार्जुनीयम | Kiratarjuniyam

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पंडित मल्लिनाथ शास्त्री - Pandit Mallinath Shastri

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राजेंन्द्र मिश्र - Rajendra Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तृतीय संस्करण !! महाकवि भारवि-प्रणीत किराताजुंनीयम्‌ महाकाव्य के प्रथम-सर्ग की यह व्याख्या मेने स्वर्गीय श्री जमुना प्रसाद भट्ट के अनवरत निवेदन तथा पूज्यपाद पितृव्य डा० आद्याप्रसादमिश्र जी के आदेश से सन्‌ १६७० ई० में लिखी थी । इसके पूर्व भी, कई एक 7ब्बश्नतिष्ठ व्याड्याकारो की पुस्तके इस एक सर्ग पर प्रकाशित हो चुकी है । अतझव यह कहने का मिथ्या-साहस न «करूँगा कि दस नवीन व्याख्या के बिना छात्रों का काम नहीं चल सकता था । फिर भी, यह कहने में मुझे सकोच नहीं है कि किराताजूनीयम की नारिकेलफलसम्भित पदावली के रससर्भनिर्भरसार का जेसा व्याख्याजन्य आनन्द सुझे विद्यार्थी-जीवन में, रमणीय पाठन-शली के कारण, अपने अद्व य भुरुजनों से सिला था अथवा प्रवक्‍ता वन जाने के बाद, उन्हीं की नकल पर छात्रा को जेंसा आनन्द देने का प्रयत्त मैं स्वय करता रहा 3 विगत सह्करणों में उस व्याख्या-सामग्री का अभाव था | प्रस्तुत प्रकाशन के सन्दर्भ में उसी अभाव को मेरी छावहित भावना' भी मान लीजिये । स्वर्गीय भट्ट जी द्वारा प्रकाशित प्रथम सस्करण सन्‌ ७४ ई० के पूर्व ही समाप्त हो ग-1 था । तब से निरन्तर छात्र-सधुदाय मे इस व्याख्या की माँग होती रही । अनेक छात्र समय-समय पर मुझसे इस विषय मे पूछताँछ करते रहे । बाहर से भी अनेक प्रवक्ता मित्रो तथा शिष्यों के पत्र इस सन्दर्भ मे प्राप्त होते रहे । वस्तुत उन्ही आग्रहो के कारण सन्‌ ७६ में इस' व्याख्यात ग्रन्थ का दूसरा सस्करण सरस्वती प्रकाशन मन्दिर ( बेरहना ) द्वारा प्रकाशित किया गया और अब उसी क्रम में अक्षयवट प्रकाशन' द्वारा तीसरा सस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है। पिपीलिका-वृत्ति से इस व्याख्या को उपादेय बनाने का प्रयत्न मैने किया है, फिर भी प्रूफजन्य अथवा प्रमादजन्य त्रूटियो की सम्भावना को नकारा नही जा सकता । मै उन त्रूटियों के लिये हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ । प्रस्तुत सस्करण की प्रस्तुति मे मेरे अनुज तथा प्रकाशन के स्वत्वाधिकारी चि० सत्यत्रत मिश्र ने प्रशसनीय सहयोग दिया है । सुन्दर प्रेस-व्यवस्था तथा आकर्षक मुखपृष्ठ के लिये उन्हे सस्नेह आशीर्वाद देता हूँ ।




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