साहित्य दर्पण | Sahitya Darpan

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Sahitya Darpan by सत्यव्रतसिंह - Satyavratsingh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २१ ) अतश्ववेणात्राभिव्ियश्ननमेव, न तु ज्ञापनम्‌ , प्रमाण-उयापारवत्‌ | नाप्युत्पा- दनम्‌; हेतुउयापारवत्‌ । ननु यदि नेय॑ ज्ञप्तिने वा निष्पत्तिः तहिँ किमेतत्‌ ? नन्‍्वयमसावलौकिको रस'। नतु विभावादिरत्र कि ज्लापको हेतु: उत कारकः ? न ज्लापको न कारकः, अपितु चर्वणोपयोगी । ननु केतद्‌ दृष्टमन्यत्र ? यत एवं न दृष्टं तत ए्वाल्ञोकिकमित्युक्तम्‌। नन्‍्वेब रसोउग्रमाण स्यात्‌ ? अस्तु, कि ततः ? तद्च- बंणाद्‌ एव प्रीतिव्युत्पत्तिसिद्धेः किमन्यदर्थनीयम्‌ | नन्वप्रमाणकमेतत्‌ ? न, खसंवेदनसिद्धत्वात्‌ | ज्ञानविशेषस्येब चबेणात्मकत्वादित्यलं बहुना ! ( ध्वन्यालोकलोचन « प्रथम उद्योत ) विभावादियोजनारूप काव्य में छोक-विलक्षण किंवा शाल्च-विलक्षण ( चस्तुत* ललितकला से ही सम्बद्ध ) एक “शक्ति” रहा करती है जिसका नाम “भावकता? शक्ति है। सचप्रथम इस 'भावकता-शक्ति? का विश्लेषण करने वाले काव्याचार्य अथवा नव्याचार्य 'भटनायक' हैं जिनके रसविषयक सिद्धान्त के सक्षेप में असिनवभारती'कार आचाय अभिनव शुप्त ने यह कहा है-- भट्टनायकस्त्वाह--रसो न प्रतीयते, नोत्प्यते, नाभिव्यज्यते | स्व॒ग॒तत्वेन हि प्रतीतो करुणे ढुःखित्वं स्यात्‌ । न च सा प्रतीतियुक्ता, सीतादेरविभावत्वात्‌, स्वकान्तास्मृयसंवेदनातू , देवतादी साधारणीकरणायोग्यत्वातू , समुद्र- लंघनादेरसाधारण्यात्‌ , न च तत्त्वतो रामस्य स्मृति: अनुपलब्धत्वात्‌ू , न च शब्दानुमानाविभ्यः तत्मतीतो लोकस्य सरसता थुक्‍्ता, प्रत्यक्षाविव नायक- युगलकावभासे हि प्रत्युत लज्जाजुगुप्सा-स्प्रहादिस्वोचितचित्तवृत्त्यन्तरोद्यव्यम्र- तया आभासत्वमथापि स्यात्‌; तन्न प्रतीतिरलुभवस्मृत्यादिरूपा रसस्य युक्ता। उत्पत्तावषषि तुल्यमेतद्दूपणम्‌ | शक्तिरूपत्वेन पूत्रे स्थितस्य पश्चादमिव्यक्तौ विपयाजलतारतम्यतापत्ति:। स्वगत-परगतत्वादि च पूर्बबद विकल्प्यपू | तस्मात्काव्ये दोषाभाव-गुणालझ्ारमयत्वलक्षणेन नाट्ये चतुर्विधाभिनयरूपेण निविडनिजसोहसझ्डुटतानिवारणकारिणा विभावादिसाधरणीकरणात्मना अभि- धातो ट्वितीयेनाशेन सावकत्वव्यापारेण भाव्यमानो रस' अनुभवस्मृद्यादि- विज्कक्षणेन रजस्तमो5नुवेधवे चित्यचलात्‌ द्रतिविस्तारबिकासलक्षणेन सच्त्वो- ट्रेकप्रकाशानन्दभयनिजसंविद्विश्रान्तिलक्षणेन परजह्मास्वाइसविधेन भोगेन पर भुज्यते इति ।! ( अमिनवभारती अध्याय ६ ) अर्थात्‌ काव्य-्नाव्य में एक अलोकिक शक्ति है जिसे 'भावकन्व' व्यापार के रूप में देखा जा सकता है। इस “सावक्ृत्व” व्यापार की हों महिमा से सहृदय सामाजिक कविवर्णित विषयों के प्रति 'स्वग॒त-परगत? का भेदभाव भूल जाया करता है और कवि- चर्णित विपय सर्च-सहृदय-साधारण के विषय चना दिये जाया करते है । इस 'मावकत्व!




User Reviews

  • ईपुस्तकालय

    at 2020-02-05 19:54:49
    Rated : 2.5 out of 10 stars.
    book ki information ke neeche blue button (ईबुक डाउनलोड करें) par click karke aap pdf download kar sakti hain.
  • Arushi

    at 2020-02-03 11:01:30
    Rated : 2.5 out of 10 stars.
    Iss book ki pdf kaise download kre???
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