साहित्य दर्पण | Sahitya Darpan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
39 MB
कुल पष्ठ :
989
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( २१ )
अतश्ववेणात्राभिव्ियश्ननमेव, न तु ज्ञापनम् , प्रमाण-उयापारवत् | नाप्युत्पा-
दनम्; हेतुउयापारवत् ।
ननु यदि नेय॑ ज्ञप्तिने वा निष्पत्तिः तहिँ किमेतत् ? नन््वयमसावलौकिको
रस'। नतु विभावादिरत्र कि ज्लापको हेतु: उत कारकः ? न ज्लापको न
कारकः, अपितु चर्वणोपयोगी । ननु केतद् दृष्टमन्यत्र ? यत एवं न दृष्टं तत
ए्वाल्ञोकिकमित्युक्तम्। नन््वेब रसोउग्रमाण स्यात् ? अस्तु, कि ततः ? तद्च-
बंणाद् एव प्रीतिव्युत्पत्तिसिद्धेः किमन्यदर्थनीयम् | नन्वप्रमाणकमेतत् ? न,
खसंवेदनसिद्धत्वात् | ज्ञानविशेषस्येब चबेणात्मकत्वादित्यलं बहुना !
( ध्वन्यालोकलोचन « प्रथम उद्योत )
विभावादियोजनारूप काव्य में छोक-विलक्षण किंवा शाल्च-विलक्षण ( चस्तुत*
ललितकला से ही सम्बद्ध ) एक “शक्ति” रहा करती है जिसका नाम “भावकता? शक्ति
है। सचप्रथम इस 'भावकता-शक्ति? का विश्लेषण करने वाले काव्याचार्य अथवा
नव्याचार्य 'भटनायक' हैं जिनके रसविषयक सिद्धान्त के सक्षेप में असिनवभारती'कार
आचाय अभिनव शुप्त ने यह कहा है--
भट्टनायकस्त्वाह--रसो न प्रतीयते, नोत्प्यते, नाभिव्यज्यते | स्व॒ग॒तत्वेन
हि प्रतीतो करुणे ढुःखित्वं स्यात् । न च सा प्रतीतियुक्ता, सीतादेरविभावत्वात्,
स्वकान्तास्मृयसंवेदनातू , देवतादी साधारणीकरणायोग्यत्वातू , समुद्र-
लंघनादेरसाधारण्यात् , न च तत्त्वतो रामस्य स्मृति: अनुपलब्धत्वात्ू , न च
शब्दानुमानाविभ्यः तत्मतीतो लोकस्य सरसता थुक््ता, प्रत्यक्षाविव नायक-
युगलकावभासे हि प्रत्युत लज्जाजुगुप्सा-स्प्रहादिस्वोचितचित्तवृत्त्यन्तरोद्यव्यम्र-
तया आभासत्वमथापि स्यात्; तन्न प्रतीतिरलुभवस्मृत्यादिरूपा रसस्य युक्ता।
उत्पत्तावषषि तुल्यमेतद्दूपणम् | शक्तिरूपत्वेन पूत्रे स्थितस्य पश्चादमिव्यक्तौ
विपयाजलतारतम्यतापत्ति:। स्वगत-परगतत्वादि च पूर्बबद विकल्प्यपू |
तस्मात्काव्ये दोषाभाव-गुणालझ्ारमयत्वलक्षणेन नाट्ये चतुर्विधाभिनयरूपेण
निविडनिजसोहसझ्डुटतानिवारणकारिणा विभावादिसाधरणीकरणात्मना अभि-
धातो ट्वितीयेनाशेन सावकत्वव्यापारेण भाव्यमानो रस' अनुभवस्मृद्यादि-
विज्कक्षणेन रजस्तमो5नुवेधवे चित्यचलात् द्रतिविस्तारबिकासलक्षणेन सच्त्वो-
ट्रेकप्रकाशानन्दभयनिजसंविद्विश्रान्तिलक्षणेन परजह्मास्वाइसविधेन भोगेन
पर भुज्यते इति ।! ( अमिनवभारती अध्याय ६ )
अर्थात् काव्य-्नाव्य में एक अलोकिक शक्ति है जिसे 'भावकन्व' व्यापार के रूप
में देखा जा सकता है। इस “सावक्ृत्व” व्यापार की हों महिमा से सहृदय सामाजिक
कविवर्णित विषयों के प्रति 'स्वग॒त-परगत? का भेदभाव भूल जाया करता है और कवि-
चर्णित विपय सर्च-सहृदय-साधारण के विषय चना दिये जाया करते है । इस 'मावकत्व!
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ईपुस्तकालय
at 2020-02-05 19:54:49Arushi
at 2020-02-03 11:01:30