श्री दादू वाणी | Shree Dadu Vani

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Shree Dadu Vani by नारायण स्वामी - Narayan Swami

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका (»५) सकती है। किन्तु इसका समाधान यही है कि अन्य प्राणियो मे अध्यास-जन्य मालिन्याहकारादि से अन्त करण मलिन है, अतः उसमे प्रतिबिम्बित आत्मा की जीव सज्ञा है और साधु ने आपा आदि सब दोषो का परित्याग कर अपने अन्त करण को शुद्ध कर लिया है, अत उसमे प्रतिबिम्बित आत्मा शुद्ध है, शुद्ध आत्मा ही परब्रह्म व परमात्मा है जिसमे सर्वज्ञता व सर्वशत्तिमत्ता है। इसीलिए शास्त्रो मे जीवन्मुक्त ज्ञानी को ब्रह्मरूप बतलाया गया है। इस प्रकार सामान्य सी प्रतीत होने वाली साखी मे व्याख्याता की रुचि के अनुसार अर्थभेद हो सकता है तो मार्मिक स्थलो का तो कहना ही क्‍या ? दादू वाणी पर कुछ लिखने के लिए अत्यन्त अध्ययन, मनन व परिशीलन अपेक्षित है, तभी उस पर साधिकार लिखा जा सकता है। मेरे इस प्राक्कथन मे इस बात की पर्याप्त कमी रही है तथा जो भी लिखा गया है उसका भी पूर्ण विवेचन स्थानाभाव के कारण नही किया जा सका है और न पूर्ण प्रमाण ही उद्धृत किए जा सके है। फिर भी जितना लिखने का आदेश मुझे प्राप्त हुआ था। उसका पूर्णतया पालन न कर जो कुछ अधिक लिखा गया है उसके लिए सम्पादक महोदय से क्षमाप्राथी हू। स्वामी सुरजनदास आचार्य, एम.ए. जयपुर 2595 ३ नमामसरूतं दादूम्‌ यदीया श्रीवाणी ह्ामृतरसनि:ष्यन्द्झरणी श्रुता5्घीता गीता मलिनमपि चित्तं विमलयेत्‌ । सदा ब्रह्मध्यानप्रवचनपरत्वेन. निरतं नमामस्तं दादूं शतशतजनाभ्यर्चितपदम्‌ ॥ १॥ जना यं सौभाग्याच्छरणमुपयाताश्चरणयो: कृतार्थस्ते सद्य: सकरुणकठाक्षैरुपकृता:। असंख्यानामेव॑ जगति खलु कल्याणकलिनं नमामस्तं दादूं शतशतजनाभ्यर्चितपदम्‌॥ २॥ असद-व्यावृव्याध्स्मानू सति निगमयन्तं गुरुवरं प्रकाशं॑ यच्छन्‍न्त॑ सकलमपनीमान्धतमसम्‌ । नयन्त॑ मुृत्योश्चामुतपदमभूयोषड्भवमहत्‌ नमामस्तं॑ दादूं. शतशतजनाभ्यर्चितपदम्‌॥ ३॥ आचार्य बलराम स्वामी, एम ए




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