आत्मत्याग की भूमिका | Aatmtyag Ki Bhomika

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Aatmtyag Ki Bhomika by भगवतीप्रसाद वाजपेयी - Bhagwati Prasad Vajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आलस्पाव के शुनिद्य २७ प्रव राकेश के मन में घाया--तो क्या दास्तव में उसते लाला जी पर विजय प्राप्ठ कर ली ! परत दसीयत की वात सुन कर उसने मोचा--अगर लाला जी अपने माब्यम से उसका विवाह श्रमिता के साथ करा दें, तो वह वसी- अत की अप्रेज्ा कहीं अधिक श्रेयस्कर होगा । पस्लु छिर सम्यता और सिप्छाचार के नाते उसने कह दिया-- दे प्राइश ऐसा कोई उपहार नहीं किया लाता जी । यह तो मेरा इर्तेत्य था। रहा वसीदत का प्रशत, सो आप यों समर लीजिये कि उपतार सह नि.सदार्य और निःशुल्क होता है। वैसे मो मेरी प्रार्यवा है कि किसी दूसरे का अधिकार छीन कर, उसवी निधि मेरी झोली में न डालें । झुके तो आपका आसीवाद्र ही चाहिये 77 अब खाला जो वोले--/तुम सचमुच एक तेकदिल प्रादमी हो । वंसे भी जी दु नुझे करना है, अपने मूह से अमी कहना नहीं चाहिये था। अच्छा चली, प्रर्दर ही बैठें 1 मेरे तो दिल की घड़केस बढ़ गयीं चादशाही 1 लाता जी मे मम्पूर्ं यत्रि राकेश से गर्ण माश्ने में ही बिता दी । दिन भर के बच्चेन्साँदे राकेश को पहले सो श्रनुभव नहीं हुभा, किन्तु श्यो-ों रात्रि का प्रत्तिम प्रहर बोतने लगा तो उसके रन में वास्म्थार अनिता के सिट्कवम सानिध्य में विताये हुए क्षणों में जीवन-सोर्य की प्रष्य कतुभूति के सुखद प्रकस्स और स्कुरएण स्पनदन जौर रसे-बोब सर गाते रहे । वास्तविकता नो यह थी कि उसका द्वारीर ही यहाँ विद्यमान था, हृदय तो अब भी कत्यता-कुन्ज में अमिता की देहलता का रप्रास्वाइन कर रहा था। उस समय उसकी मानसिक स्थित्ति ऐसी ने थी कि वह लाता जो से वाहुयुद्ध कर सकृता । अतः झपनी सावसिक विहार यू सता को तोई दिना कपसे मन से, उनकी बातें गुरने का बहता स्थिर बनाये रखने के लिए दीच-वीच केवल इंकारी भरता छत हु




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