छाया | Chaya

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Chaya by उपाध्याय श्री मधुकर मुनि - Upadhyay Shri Madhukar Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छाया | 13 ऐसी निर्धन महिलाएँ भी मेले में नहीं जा रही थीं श्रौर नवती भानुमती पुत्रहीन होने के कारण मेले की वहार देखकर ने 'रही थी । क्योंकि रूठते-सचलते और किलकारियां भरते बालक ते श्राज मेले की वहार थे और पुत्रवती माताए इस. बहार की शाश्रय थीं। रोती रही भानुमती । पर कब तक रोती ? उसके यू तो सूख गये, पर गोरे कपोलों पर अपने चिक्त छोड़ गये और प्राँखों में सूनापन भी । जिनदत्त ऊपर पहुंचा । उसने श्राज पहली बार शअ्रपनी प्रिया शो ऐसा उदास और दुःखी देखा था। देखा तो सिहर गया और ग्रोला-- ह /प्रिये ! श्लाशा के विपरीत आाज में क्‍या देख रहा हूं। तेरा जनदत्त निरा बनिया हो नहीं है, वह खड़ग चलाना भी जानता १1 बता, आज किसे भृत्यु सुखकर लगी है ? किसने तेरा मन ख़ाया है ? | कुछ नहीं बोली भानुमती, वल्कि सिसक-सिसककर पुन शीने लगी । जिनदत्त ने श्रपनें करचीर से श्राँसू पोंछ डाले । वक्ष पल लगा लिया निज प्रिया को । बोला-- “मेरे मन में श्राशंकाए' न भरो प्रिये ! क्या तुम्हें भेरे ऊपर ना विश्वास भ्रव नहीं रहा कि तुम्हारा मन दुखाने वाले को नष्ट कर दूंगा ? तेरे मौन से तो मैं स्वयं भी बहुत दुखी हो ऊंगा। पति के प्रेमाग्रह से भानुमती को बोलना पड़ा । बोली वह-- प्र णेएदर ! मेरे दुधश्ख को तो आप भी जानते हैं । भेरा वह ख भापका भी दू ख रहा है। पुत्र के बिना हमारा घर-आश्रांगन वा है। भाग्य की प्रवलता देखकर झाप घैय॑ घारण किये रहते




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