बिना छाया का आदमी | Bina Chhaya Ka Aadami

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Bina Chhaya Ka Aadami by योगेश गुप्त - Yogesh Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बिना छाया का आदमी / 27 कहते-कहते प्रतिभा का चेहरा पत्थर वी तरह कठोर हो उठा। उसका भमेरी रग पीला हो गया। उसकी दोनो असाधारण, बडी बडी जाखा में नमी तिरती न होती तो सुधीर उस चेहरे से वाकई डर जाता। वह चुप- बाप उठकर बाहर खिसक आया। कोठी से बाहर सडक पर आकर पीछे मुडकर देख | दीघकाय स्फटिक नहा घोवर हरा कोपीन पहने खड़ा है। कही कही पाती की बूदें हरे कोपीद पर लटकी हुई हैं। अभी गिर कर फूट जाएगी। फूट जाने दो । पर स्फ्टिक के अदर बद वह सुधीर पल भर को ठिठक गया। उसने ऊपर आप्तमान की तरफ देखा । बादल जा चुके हैं । नीला-साफ आसमान कैसा भदेस लगता है । कोरी औरत की तरह्‌ 4 बस से उतरते ही सुधीर को महसूत्र हो गया--वह दूसरी दुनिया मे आ गया है। दूसरी दुनिया सुधीर वी असली दुनिया , नही असली दुनिया नहीं, वह दुनिया जिसमे सुधीर रहता है, असली दुनिया से तो वह लौदा है। असली दुनिया मे रह कौन पाता है। पर नहो, असली दुनिया वही होती है जिसमे आदमी रहता है सुधीर मे सडव पार वी। वह धीरे-घीरे अपने घर की तरफ खिसक चला । सहा के आसमान पर अभी भी बादल घिरे हैं। इस आसमान के बादल अलग हैं । जैसे विसी ने घुए मे बोलकर काली- मूरी मिट्टी आासमान में उछाल दी हो इस कालोनी के चारो तरफ फैली फकटरियों की चिमनिया घुआ उयलती भी बहुत हैं। धूल तो खेर वारिश से मीचड म बदल जाती है। और उडना बाद कर देती है, पर वीचड सने पैरा स जब आदमी घर की तरफ बढ़ता है तो मन बहुत उडता है। सुधीर ३ घर तब जो गली छोडती है, उसमे दोनो तरफ लगातार फैब्टरिया हैं । बारिश न भी हो तव भी सारी गली म पानी भरा रहता है। फीटरिया




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