महापुराणम् भाग - 2 | Mahapuranam Bhag - 2

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Mahapuranam Bhag - 2  by डॉ॰ पन्नालाल साहित्याचार्य - Dr. Pannalal sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सप्विशतितम पर्व श्रय व्यापारयामास दु्य तत्र! विज्ञाम्पति । प्रसन्न सलिले पाद्य वितरन्त्यामिवात्मत ॥१॥ स्यापारितदृश तत्न प्रभुमालोक्‍्य सारथि । प्राप्तावसरमित्यूचे वचइचेतोडनुरुअजनम्‌ ॥२॥ इयमाह्नादिताशेपभुवना देवनिम्तगा। रजो बिवुन्वती भाति भारतीव स्वयम्भुव ॥३॥ पुनातीय हिंसाद्वि च सागर च॒ महानदी। प्रसूतो' च प्रवेशे च गम्मोरा निर्मलाशया ॥ड॥ इमा बनगजा प्राप्य निर्वान्त्येते' मदइच्युत '। सुनीस्द्रा इव सद्रि्य/ गम्भीरा तापविच्छिदम्‌ ॥५॥ इत पिबन्ति बन्येमा पयोडस्या कृतनि स्वना । इतोडमी प्रयत्येमा मुक्तासारा शरद्धना ॥६॥ अस्या प्रवाहमम्भोधि घत्ते माम्मींयोगत । असोढ विजयाथेन सुदगेताप्यचलात्मना 'छ॥ भ्रस्था पय प्रवाहेण मूनमब्धिवितृड्‌ भवेत्‌। क्षारेण पयसा स्वेन दह्चसानाम्तराशय ॥छा। पद्मह्॒दाद्विमवत प्रसप्नादिव मानसात्‌ | प्रसूता पत्रथे पुथ्व्या शुद्धनामा हि पूज्यते॥ ६॥ व्योमापगामिमा प्राहुवियत्त ” पतिता क्षितो । गडगादेवीगृह विष्वगाप्लाव्य स्वजलप्लबे ॥१ण॥ अथानन्तर बहापर जो स्वच्छ जलसे अपने लिये (भरतके लिये) पादोदक प्रदान बरती हुईं सी जान पडती थी ऐसी गरज्भा नदीपर महाराज भरतने अपनी दृष्टि डाली ॥१॥ उस समय सारथिने महाराज भरतको गजद्जापर दृष्टि डाले हुए देखकर चित्तको प्रसन करनेवाले निम्नलिखित समयानुकूछ वचन कहे ॥२॥ हे महाराज ! यह गज्ञा नदी ठीक ऋषभदेव भंगवानूकी वाणीकें समान जान पड़ती है, क्योकि जिस प्रकार ऋषभदेव भगवाव्‌की वाणी समस्त ससारको आनन्दित करती है उसी प्रकार यह गज्भा नदी भी समस्त लोकको आनन्दित करती है और ऋषभदेव भगवान्‌की वाणी जिस प्रकार रज अर्थात्‌ पापोकों मप्ट करनेवाली है उसी प्रयार यह गज्ञा नदी भी रज अर्थात्‌ धूलिको नप्ट कर रही हैं ॥३॥ गरभीर तथा निर्मे जलसे भरी हुईं यह गज्जा नदी उत्पत्तिकें समय तो हिमवान्‌ पर्वेतकों पवित्र करती है और प्रवेश वरते समय समुद्रवों पवित्र बरती है ॥४॥ जिम प्रकार गभीर और सस्तापको नष्ट बरतेवाओं सद्विद्या (सम्यत्तान) को पावर बडे बडे मुनि छोग मद अर्थात्‌ अहकार छोड पर मुवत हा जाते है उसी प्रवार ये जगटी हाथी भी इस गभोर तथा सतापवो नप्ट करनेवाली गन्ना नदीकों पावर मर्दे अर्थात्‌ गण्डस्थ रसे मरनेवाठें तोय विशेेषतरों छोडबर शान्त हो जाते है ॥५॥ इपर ये बनते हाथी शब्द वरते हुए इसबय पानी पी रहे हे और इधर जलबी वृष्दि बरने हुए ये घरदुकरतुरों मेघ इसे भर रहे है ॥६॥ अत्यन्त ऊचा और सदा निइचर रहनेबाएा विजया् पर्वत भी जिसे धारण नटी बर सवा है ऐसे इसके प्रवाह्मों गम्भीर होनेसे समुद्र गंदा धारण बारात रहता हैं ॥9॥ सभव है कि अपने पारे जल्स जिसवा अन्त वरण निरन्तर जरना रहता हूँ ऐसा सम्द्र इस गद्गधा नदीें जटये प्रवाहसे अवश्य ही प्यायरहिल हो जायेगा 1८॥ यह गद्ा भसन्न मनवा समात जिम” हिमवाद्‌ पर्वतयें पद्च सामव' सरोवस्से सिवर- बर पृविवीषर प्रणिद्ध हुई है सा टीन ही है वयावि जिसवा जन्म धुद्ध हाता हैँ बह पूज्य होता हो है ॥1 ये गड्ा अपन जरर प्रवाटस गद्जादवीयर घरता चारा जारगे भिगोरर आवाद्य- है शशादाम। + एतियान। ३ गुखिता भवाति मुक्ताइव। ४ मइष्यूत स०। ४ दामाटबरपबाम । ६ साुशचयरम 1 दलुमावदशित्यप | ७ विषत स॒०, ६०, द०।




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