संस्कृत साहित्य में आयुर्वेद | Sanskrit Sahitya Me Aayurved

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पारिनि न्प्डु 1द३1द३1२६] रुजत्यसौ रोगः; स्थ्ररातीसि रपरदां उपतापः 1 सम्भवतः स्पर्श उन रोगों के लिए श्राता हो जो कि छूतकें द्वारा फेलते हैं : जिनको सुश्चुतमे ब्ग्ौपसर्गिक रोग कहा है [औऔपसर्मिकरो गॉस्च संककमन्ति नराज्रस] ।रोगका नाम गद है; इसलिए, रोगकी दूर करनेवालेकों--न्विकित्सकको--'्गदज्लार” कहते हैं [६ ३७०] इस सूज्पर चालिक है--झस्तुसत्यागदस्य कार इति चकक्‍्तव्यस। बनस्पतिके लिए; छोपषि तथा तैय्यार की हुई दवाईके लिए. श्यौपघ शब्द दिया डै. [५४1३७] छीपन पिवति । अपर ददातिं 1 अजातादिति किस ? ऑ्रोपघय: ेने रूढा सवन्ति 1 [कास्यप संदितामं इसे द्यन्य रूपसे कहा है, यथा--श्रीपधं द्रव्यरसंयोर्ग घ॒बते दीपनादिकम | झुतन्नवतपों दाने श्यास्ति- कर्म च सेपजम ।॥| आोपघ सेपजेन्द्ियाध्यायः । चिकित्साकें ब्यर्थेमें दापनयन धाब्द ाता है [५४1४९] रोगों व्याघिः ्य्रपनयन घतीकार: चिकित्सेत्यथः: । इसीलिए: श्रवाहिकातः ऊुरु; छुर्दि- 'कातः छुर का झार्थ है-प्रचादिकाकी न्विकित्सा करो; छ्ुर्टिकी न्विकित्सा करो । दोपौक्े नाम--पासिनिके खून तस्य निमिक्तं संग्रोगोत्पाती [1१1३८] पर कासत्यायनका एफ वार्तिक है--तस्य निमित्तकरणे लात- 'पित्तश्लेप्मेश्य: शामनकोपनयोरुपरसंख्यानम् 1 इससे चातस्य थामनं च्होपन था, चातिकस, पैत्तिकस, श्लैप्मिकस ये रूप बनते हैं । दूसरा चार्तिक है-- -सनिपाताध्य लि वक्तच्यसू । इससे सान्चिपातिकमस मसान्द बनता है । रोगाक नाम--रोग कइनेकी श्पेक्षार्स इक _पत्यय करनेसे [३1 ३1१ ०८] अ्वाहिका; घच्छु्दिका, विचर्व्यिका शब्द चनते हैं । चात थ्यौर अतिसार शब्द से इन_ प्रत्यय करनेपर [४५.1२1१ २६. “वातकी'” “ब्तिसारकी” रूप बनते हैं । उपताप-रोरा; सेगके नामके साथ इचनि श्रत्यय होने पर [५२1२ र८ | छुपी, 'किलासी शब्द बन जाते हैँ । अदतुसस्वन्थधी सोग--येग सर आतपके अर्थमें शरद शब्दके . साथ 'ठज.! घत्यय द्ोनेसे [४1२1१ २३] शारदिकों रोगः, श्यारदो रोगः ये दो रूप बनते हैं, झन्यत्र शारदं इस तरह रूप बनेगा 1




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