श्रीबृहज्जिनवाणी संग्रह | Shrivrahajjinavani Sangrah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
486
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वृहजिनवाणीसंग्रह [ः शक्
नरकनि जाय क्यों; अनेक दुःख पाबोरे ॥ उठोरे० ॥ 9॥
परको मिलाप त्याग आतमके जाप लाग, सुब्॒धि बतावेग॒रु
ज्ञान क्यों न लावोरे ॥ उठोरे ॥ ५॥
राग वसंत ।
_भोर भयो भज श्री जिनराज, सफल होहिं तेरे सब काज
॥ टेक ॥ धन सेपति मन बेछित भोग, सब विधि जान बने
संजोग।॥ भोर०॥ १ ॥ कत्यवृच्छ ताके घर रहे। काम-
घेनु नित सेवा बंहे । पारसवितामनि-समुदाय, हितसों
आय मिले सुख दाय ॥ भोर० ॥२॥ दुलुभतें सुलभ्य है जाय,
रोगसोग दुखदर पलांय.। सेवा देव करें मनलाय, विधन
उलटि मंगल ठहंराय ॥ भोर० ॥ ३॥ डायनिभूत पिशाच॑
'न छले, राज चोरको जोर न चले। जस॑ आंदर सौभाग्य
प्रकास, धानत सुरग मुकतिपदवास ॥ भोर०॥ 9॥
ट रशाग
भोर भयो सब भविजन मिलकर, जिन वरपूजन आवो'
( जावो ), अशुभ मिटावों पुण्य बढावों, नेनन नींद गमावों
॥ भोर०॥ टेक ॥ तनको धोय धारि उजरे पट, सुभगज-
लांदिक लावो । वीतराग छबि हरखि निरखिके, आगमोक्त
गुन गावों ॥ भोर भयो० ॥१॥ शास्तरं सुंनो भनो
जिन॑वोनी, तप्संजम उपजावो । घरि सरधान देव शुरु
, आगम, सांत तत्तरुचि छावो ॥ भोर भयो०॥ २ ॥ दुःखित'
जनकी दंया स्योय उर, दान चारविधि-थावो। रागरोष॑
त॑जिं मंजिः निंजपंदको;- 'बुंधजंद' शिवपद पावों ॥. भोर
भयो० ॥ ३ ॥ |
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