श्रीबृहज्जिनवाणी संग्रह | Shrivrahajjinavani Sangrah

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Shrivrahajjinavani Sangrah by पन्नलाल बाकलीवाल - Pannalal Bakaliwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वृहजिनवाणीसंग्रह [ः शक् नरकनि जाय क्यों; अनेक दुःख पाबोरे ॥ उठोरे० ॥ 9॥ परको मिलाप त्याग आतमके जाप लाग, सुब्॒धि बतावेग॒रु ज्ञान क्यों न लावोरे ॥ उठोरे ॥ ५॥ राग वसंत । _भोर भयो भज श्री जिनराज, सफल होहिं तेरे सब काज ॥ टेक ॥ धन सेपति मन बेछित भोग, सब विधि जान बने संजोग।॥ भोर०॥ १ ॥ कत्यवृच्छ ताके घर रहे। काम- घेनु नित सेवा बंहे । पारसवितामनि-समुदाय, हितसों आय मिले सुख दाय ॥ भोर० ॥२॥ दुलुभतें सुलभ्य है जाय, रोगसोग दुखदर पलांय.। सेवा देव करें मनलाय, विधन उलटि मंगल ठहंराय ॥ भोर० ॥ ३॥ डायनिभूत पिशाच॑ 'न छले, राज चोरको जोर न चले। जस॑ आंदर सौभाग्य प्रकास, धानत सुरग मुकतिपदवास ॥ भोर०॥ 9॥ ट रशाग भोर भयो सब भविजन मिलकर, जिन वरपूजन आवो' ( जावो ), अशुभ मिटावों पुण्य बढावों, नेनन नींद गमावों ॥ भोर०॥ टेक ॥ तनको धोय धारि उजरे पट, सुभगज- लांदिक लावो । वीतराग छबि हरखि निरखिके, आगमोक्त गुन गावों ॥ भोर भयो० ॥१॥ शास्तरं सुंनो भनो जिन॑वोनी, तप्संजम उपजावो । घरि सरधान देव शुरु , आगम, सांत तत्तरुचि छावो ॥ भोर भयो०॥ २ ॥ दुःखित' जनकी दंया स्योय उर, दान चारविधि-थावो। रागरोष॑ त॑जिं मंजिः निंजपंदको;- 'बुंधजंद' शिवपद पावों ॥. भोर भयो० ॥ ३ ॥ |




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