द्रौपदी | Dropadhi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
318
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)न पी और के साथ उनकी मिनता शुता में परिणत हो
। द्वोण ने जीमें ठान ल्या कि, यदि यह जीवन दना है, तो
किसी दिन द्ुपद् के इसी राज्य पर अधिकार करके इसका अभि-
माल चूर करूंगा ।
यह सीच कर द्रोण अपने आश्रम को छोट भाये और चहाँ से
अपने साले उुपाचार्य के पास हस्तिनापुर चले गये । आचार्य कृप
हस्तिनापुर में घ्रतराप्द्र और पाण्डु के पुत्रों को अख शिक्षा देते थे,
उन्हीं कै साथ द्रोण अज्ञातभावसे रहने लगे। उन्होंने कृपाचार्य से
कह् दिया कि, थे अभी उनका परिचय किसी को न दें ।
कुछ दिनों फे बाद उन्होंने एक दिन मगर के बाहर देखा कि,
बहुत से घालक एक क्षुएँ परे जमा हैं। थे कुपँ से किसी चस्तु
के निकालते की युक्ति करते है, पर उनका वश नहीं चलता । इन्हीं
थालकों में गाजघराने के भी सर वालक थे | गुली डण्टा खेलते-
खेलते, ये. इतनी दूर निकल आये थे और सयोगयश उनकी ग़ुछी
इस कूपँ में गिए पडी थी । द्वीण ने अपनी शक्ति, अपनी चातुरी
और अपना कौशल दियाने के छिए,इस अयसर को उपयुक्त समझा
और बारूकों फे पास जाकर उन्होंने हेसकर कहा
< घालऊों ! ठ॒ग्हें घिकार है, तुम्हारे क्षात्रयठ्ू की घिकार
है और तुम्हारी अञ्न शिक्षा को भी घिक्ार है। तुमने भग्नवश में
जन्म लिया है और तुम एक मामूली काम भी नहीं कर सकते!
इस क्र से अपनी शुद्दी को चाहर कर लेने की शक्ति भी तुम में
नहीं । देखो, हम अपनी यह अंगूठी भी इस छू में डाले देते है ,
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