छन्द प्रभाकर | Chhand Prabhakar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
294
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)_.. _ फ्रेश | [४९]
कन्द।. *-
अन्ते सुनेगप्रयात के, लघु इक दीने कन्द |
पढ्विले तो कन्द् वृत्त का लत्तण दोहा में फद्ा गया ( कन्द चृत्त ही में
नहीं , फिर उस पर भी यह कि सुजगप्रयात के अन्त में लघु लगा देने से कन्द्
ब्रत्त बनता है। लीजिये, अब ढूंढ़िये कि भुजगप्रयात किसे कहते है, घह कितने
अत्तरो का है, समवृत्त हे कि विषम इत्यादि | क्योंकि घचह इस लत्तण से तो
कुछ जानही नहीं पढ़ता हे शरतु, किसी तरह धुजगप्रयात मित्रा तो अब इसे
पढ़िये और सममिये। जब समम में श्राज्ञाय, तब फिए उसके श्रेत भे एक
लघु रख दीजिये ओर कन्द वृत्त वना लीजिये | है न यह परतंत्र नियम !
हमने कन्द् चच का लत्तण इस तरद्द लिखा है--
“यो लाइके चिंत आनन्द कन्दाहिं”
दी०-चित्त लगाकर धाननन््द्ऊनद परमेश्वर से याचना करो ।
पिंगलार्थ--यचो८यगण चार, जाइके-लघु एक |
इसमें लत्तण, उदाहरण, नाम ओर उपदेश सब एंकद्दी स्थान पर मिल
गये | ( पूरा उदाहरण पंथ में यथास्थान पर देखिये )
(२७) हमारा श्मसिश्राय प्राचीन कफवियो को दोप देने का कदापि नहीं है
कितु केवल यद्दी वक्तव्य है कि उन लोगो ने अपने समय में जो किश
चह परम प्रशवनीय था । परंतु भव चई समय नहीं रहा अतपव उनके भ्रन््थो
| से जैसा चाहिये देसा लाभ द्ोना सस्मव नददीं दे ।
(५४) सच पूछिये तो इस छुल्दस्सागर का पारावार नहीं। इसमे ज्यों
डुबकी लगाइये त्योर एक से एक बढ़कर पभसूत्य रल हाथ भाते है | जो छुल्द
प्रगट नहीं हैँ वे गाथा” कद्दाते हं। बहुत से खत्कवियों ने नाना प्रकार के
छुरदू अपनी विधला से रचर२ कर उनके सिन्नर नाम रफ्खते हैँ वे सब
श्रादरणीय है। क्योंकि प्रस्तार की रीति से अनेक छुन्द निकल सकते हैं शोर
पाझ्नो को ही नूतन छुल्द रखकर उनके नाम रखने का श्धिऋआर है, अन्य को
नहीं । ओर पात्र चेद्दी हैं जो छुंदो के लक्षणों को भजीमांदि सम्रफते-सममात्ते
पढ़ते ओर पशते हैं, किन्तु जौ नाम एक बार किसी कावे ने किसी छुल्द का
रखंकर प्रकाशित कर दिया है उसे पत्नटना न चाहिये। उचित है कि उसका
श्राद्र हो ओर नाम पलटा न ज्ञावे | नाम पलटने से केवल श्रम उत्पन्न दाता
है झोर लाभ कुछ नहों ।
(२६), वरशनइत्त की श्पेत्ञा मात्रिक छुद्ो की रचना में विशेष सावधानी
चाहिये । मात्रिफ छुद्ो की श्रेणी में यदि फद्दी कोई ऐसा कद दशष्टिगोचर दो कि,
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