डेरे वाले | Dere Wale

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ > और दिनों बाजार जाती थी श्यामा, तो कही पान खाती, कही प्लिगरेट पीती भौर कही चाय पीती सवेरे की गई साक को लौद्ती थी । आज रेवाचरन की दुकान से वाहर निकलते ही सीधे घर की दिया पकड- कर लौट ग्राई घी। रास्ते में मोतिया धारा के पाम्त नेता बाकेविहारी लाल भौर ठाकुर कंचनसिह हौलदार पानवाले की दुकान के पास पान साते मिल गए थे । दुकान के पास तो अपने वड़प्पन के गढर में चुप रह गए थे, मगर प्रगले मोड़ पर पीछे-पीछे ग्राते हुए, सासने-खंखारने लगे थे। भर दिनो ऐसे सकेतो पर वह रुक जाती थी । शहर में दिन काटने हैं, सो झहर के रईस लोगो को दिलजोई करना वहुत जरूरी है। कीचड़ के छोटे बर्दाश्त कर लेना हर डेरेवाली की नियति है। बकोल-नंता, बड़े लोग के तो सात खूब माफ होते हैं ।***मगर झ्राज पाव एक ही नही थे। उन लोगों के स्ासने-खंखारने को भ्रनसुना करके ग्राये निकल जाना चाहतो थो । पलटकर देखने के बाद तो बिना 'सेवा मानिए! कहे, बिना हंसे-बोले ही धागे वढ जाने से उनके नाराज हो जाने की झाश्यका थी । बड़े झ्ाद- मियों से बेर मोल लेना ठीक लहो । जिनका पेशा साई-गुसाई लोगों का दिल बहूलाकर रोजी-रोटो जुटाना हो, उनके लिए शहर के समुर्डधन्यों की अवहेलना करके झागे निकल जाना जोखिम-भरा ही हो सकता है। प्रच्छे-जासे लम्बे कद के बावजूद, औरत का चलना आखिर भौरत का चलना है। उन दोनों के जूतों की श्रावाजों से ही दयामा ते अनुमान लगा ज्षिया था क्लि फासला कम होता जाता है। “क्यों, श्यामी, मेनका की जेंसी उडी कहां को भग रही है ?” एक- दम करीब पहुंचते हुए वांकेविहारी ने कहा, तो झमचकचाकर रुक गई, “हाय, मैंने पहचानी ही नही, गुसाई, घ्राप लोगों के कदमों की पझ्लावाज !




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