स्याद्वादमञ्चरी | Syadwadamanchri

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Syadwadamanchri by जगदीश - Jagdeesh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दीकाकार मलिपेण 1 (२) आत्मा घर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आदि सम्पूर्ण ब्रव्योंमें नाना अपेक्षाओंसे नाना धर्म रहते है, अतएप अत्येक वस्तुको अनन्तघर्मामक मानना चाहिये। जो पस्तु अन तघर्मा मक नहीं होती, यह वस्तु सत्‌ भी नहीं होती। ( ३ ) प्रमाणयाक्य और नययाक््यसे यस्तुर्में अनन्त पर्मो्मी सिद्धि होती हे। अमाणराक्यको सफछादेश' ओर नययाक्यकों तिकलादेश कहते हे | पदार्थक्रे धर्मोका काछ, आत्मरूप, अप, सत्प, उपकार गुणिदेश, सस्रग और शब्द अपेक्षा अभेदरूप कथन करना सकलादेश, तथा काठ, आमरूप आदिकी भेद तिप्स्‍क्षासे पदार्थकरे धर्मोका प्रतिपादन करना परिकछदेश हे। स्थाइस्ति, स्यात्नाप्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्तिअपक्तब्य, स्पान्नास्ति- अयक्तव्य, ओर स्पादस्तिनाश्तिअपक्तव्यके भेदसे सकलादेश और बविकलादेश प्रमाणसप्तमगी जौर नयसप्तमर्गास़े सात सात भेढोंमें परिभक्त है । ( ४ ) स्याद्मादियोंके मतमें स्व दव्य, क्षेत, काल ओर मायकी अपेक्षा उत्तुमे अस्तिल है, आर पर 5व्य, क्षेत्र, काठ ओर मानी अपेक्षा नास्तित्य हैे। तिसे अपेक्षास उत्तुर्मे अस्तिल्त है, उसी भपेक्षासे उस्तु्में नाध्तिय नहीं है। अतएपय सप्तभगी नयमें विरोध, वैयधिकरण्य, अनयस्था, सफर, व्यतिकर, सशय, अग्रतिपत्ति और अभाव नामक दोष नहीं आ सकते । ( ५ ) हब्याथिक नयकी अपेक्षा उस्तु नित्य, सामान्य, अयाच्य, ओर सत्‌ €, तथा पर्यायाविक नयकी अपेक्षा अनित्य, पिशिष, बाच्य ओर असत््‌ हे | अतएय नित्यानित्ययाद, सामायतरितेपषत्राट, अभिडान्यानमिवाप्पाद तथा सदसद्वाद इन चारों परादोंका स्याद्ादमें समायेश होनाता हे । (६ ) नयस्यप समस्त एकातयादोंका समन्वय करलनेयाछा स्याद्यदका सिद्धात ही सर्ममान्य हो सकता है । ५ (७, ) भावामात, ईताइत, नित्यानित्य भादि एकातयारटोर्मे सुखुख, प्रण्ब-पाप, चपन्मोक्ष आंदिकी व्ययस्था नहीं बनती । ( ८ ) बस्तुके अनन्त धर्मामंत्त एक समयमे क्रिमी एक धर्मकी अपेक्षा टेकर बस्लुके प्रतिपादन करनेको नय कहते है| इसे रिये तितने तरहके वचन होने €ै, उतने ही नय हा सकते है। नयके एकसे लेकर सख्यात भेट तक हो सको हैं । सामात्यसे नेगम, सम्ट, व्यपद्धार, ऋतुमत, शब्द; सममिस्द्ध और एयनूव ये सात भेद किये जाते ६ । स्यायशेप्रिक केबल मेगमनयझे, अदैसयादां ओर सागय केयड सम्रइनयके, चार्यफुओझोग केय व्यय्टारनयरे बाद स्ोेग केजछ ऋजुसूउनयक्ें, और वैयाकरण केयछ झब्हउयक्ते माननेयाल़े ८ | अगाण




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