हिंदुस्तानी भाग 10 | Hindusthani Bhag 10
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
26 MB
कुल पष्ठ :
460
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गुसाईं तुलसीदास की धर्मपत्नी रत्नावलि १६
रलावलि के काव्य की भाषा-शेली
रत्नावल्लि के काव्य में भावों की गंभीरता के साथ भाषा-दैली का भी सौंदर्य हैं,
यह हम पहले कह चुके हैं| उस की भाषा ब्रजभाषा है । इस भाषा में प्रसाद और माधुर्य-
गुण सर्वत्र मिलेंगे। जेसी उस समय की सरल साहित्यक ब्रजभाषा थी, उसी प्रकार की
'भामा का रुप इस कवयित्री के दोहों में मिलता है । भाषा के तत्सम रूप की श्रपेक्षा तद्-
भव रूपों का अधिक प्रयोग किया गया है । जैसे, तिय', सरबस', 'भगति', 'विपति',
करतब' आदि । रत्नावलि के समकालीन कवि सूर, तुलसी, नंददास आदि कवियों की
ब्रजभाषा में कहीं-कहीं हिंदी शब्दों के पूर्वी रूपों का भी प्रयोग पाया जाता है। जंसे,
अहे, श्राहि' 'एहि घाट तें थोरिक दूरि श्रहेँ (कवितावली--तुलसीदास ) , “निपट ठगोरी
अ्राहि मंद मुसकानि', (रासपंचाध्यायी--नंददास ) । परंतु रत्नावलि की भाषा ठेठ
ब्रजभाषा रूप मैं है । ब्रजभाषा में क्रिया से भाव-वाचक संज्ञाएं तीन प्रकार से बनती हें ।
एक तो व्यंजनांत घातुओों में अ्नो, या श्रनों और स्वरांत धातुओं में नो' या नों' लगा
कर बनती है । जैसे, चलनो' मारनों', लैनों', दूसरे अ्न, या अनि' और न, या नि'
लगा कर जेसे फरकन' या 'फरकनि', चलन' या 'चलनि; तीसरे न' अंतवाली क्रियाश्रों
में न' के स्थान पर 'इबो' या इबौ' लगा देते हें। जेसे, मारना' से मारिबौ', चलिबौ।
रत्नावलि की कविता में भाववाचक संज्ञा के ब्रजभाषा के इन तीनों रूपों का प्रयोग मिलता
है। जसे, 'पिय बिछरन दुख जानती, दरऊं उराहनों', ““चढ़िबौ कठिन सुमेर”, लरिकन
संग, खेलनि, हँसनि, बेठनि रतन इकन्त”, बतरानि”। इसी प्रकार संज्ञा, सर्वनाम,
भ्रव्ययादि व्याकरण के रूपों में र॒त्नावलि की भाषा शुद्ध ब्रजभाषा का रूप प्रकट कर रही
है । इस भाषा में मुहाविरों का प्रयोग भी कहीं-कहीं किया गया हैं । जैसे राग में रंगना'
विराग में आग देना', मन सिराना' आदि। प्रचलित कहावतों का प्रयोग बहुत नहीं
हैं। कहीं-कहीं दो चार कहावतें प्रयुक्त हैं । जसे--- पाँच पेंड भागे चले, होनहार सब
ठौर”। स्थान-स्थान पर स्वाभाविक श्रनुप्रासों के प्रयोग ने इन दोहों की भाषा को और
भी मधुर बना दिया हे । जेसे--
(१) लखि लखि चय सीतल करं, हीतल लहे हुलास ।
(२) रास भगति भूषित भयो, पिय हिय निपट निकास ॥
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